वीथी

हमारी भावनाएँ शब्दों में ढल कविता का रूप ले लेती हैं।अपनी कविताओं के माध्यम से मैंने अपनी भावनाओं, अपने अहसासों और अपनी विचार-धारा को अभिव्यक्ति दी है| वीथी में आपका स्वागत है |

Monday, 22 October 2012

प्राप्‍य




प्राप्‍य

तपते मरू-सा मेरा जीवन
धूप-घाम सहता
जूझता आँधियों से
उस जूझने के बीच
कुछ रेत के कण
धँस जाते आँखों में
दे जाते घनेरी पीर !

पारिजात की चाह में
कई बार उलझा कैक्टस में
खुशबू तो ना मिली
फटा आँचल
लहूलुहान गात
रिसता लहू
ज़ख्म सौगात !

किंतु मन !
मन पा ही लेता है अपना प्राप्य
कुछ शीतल स्नेहिल छींटे
हँस उठती हैं आँखें
हरिया उठता है मन !


-शील

Tuesday, 16 October 2012

बर्फ हुईं संवेदनाएँ

आज ’वीथी" पर सूरज प्रकाश जी जैसे साहित्यकार की सदस्यता ने १०० का आँकड़ा पूरा कर शतक बनाया !बहुत प्रसन्नता हो रही है मित्रोके साथ यह खुशी साझा करते हुए ! प्रभु के और आप सब के प्रति आभार व्यक्‍त करते हुए मैं सुशीला श्योराण "शील" यह कविता आप सब की नज़र करती हूँ - 

                



ग्रीनपार्क की चौड़ी मगर संकरी पड़ती सड़क
ठीक गुरूद्वारे के सामने

ट्रैफ़िक की रेलम-पेल में
रेंगती-सी ए.सी. कार में
बेटे का साथ
निकट भविष्य की मधुर कल्पना
और राहत फ़तेह अली खान के सुरों में खोई
आँखें मूँदे आनंदमग्न मैं
ब्रेक के साथ बाहर दृष्टि पड़ती है
और जैसे मैं स्वप्नलोक से 
दारुण यथार्थ में पटक दी गई !


तवे-सा काला वर्ण
चीथड़ों में लिपटा नर-कंकाल
सड़क के बीचों-बीच
बायाँ हाथ दिल पर
चेहरे पर भस्म कर देने वाला क्रोध
दायें हाथ से बार-बार
हवा में 'नहीं' संकेतित करता
चारों दिशाओं में यंत्रवत घूमता
विक्षिप्‍त मानव
नहीं भूलता !


दिल ने पुकारा -
कहाँ हो दरिद्रनारायण ?
कितना आसान है
उसे पुकारना
और आँखें बन्द कर
आगे निकल जाना !



-चित्र साभार गूगल