स्त्री होकर सवाल करती है!
ओ दम्भी पुरूष !
सदियों से छला है तुमने
कभी देवी-गृहलक्ष्मी
अन्नपूर्णा-अर्धांगिनी
ह्रदय-स्वामिनी- भामिनी
क्या-क्या नहीं पुकारा मुझे?
पुलकित-आनंदित
बहलती रही मैं
तुम्हारे बहलावों-छलाओं से !
देवी बनकर लुटाती रही
तुम पर सर्वस्व अपना
कहाँ की मैंने अपेक्षा
तुम्हारी रही सदैव
प्रस्तर-प्रतिमा
आंगन तुम्हारे
ना कोई आशा
ना अभिलाषा
पीती रही दर्द के प्याले
पिघलती रही पल-पल
जलती रही तिल-तिल
सिमटती, मिटती रही !
पुत्री बन बनी अनुगामिनी
प्रेयसी थी समर्पिता
पहन मंगलसूत्र
नाम-गोत्र-पहचान
किए न्यौछावर खुशी-खुशी
मातृत्व-सुख से हुई
गर्वित-निहाल
पाला उनको
जो थे अंशी
तेरे-मेरे लाल ।
आज खोजती हूँ खुद को
पूछती हूँ खुद से
कौन थे तुम
जो आए अचानक
लील गए सपने मेरे
बो दिए सपने अपने
भीतर मेरे-बहुत गहरे
पूछती हूं पा एकांत खुद से
कर पाईं क्या न्याय स्वयं से तुम
मेरे भीतर उठते इन सवालों से
सचमुच बहुत डरती हूँ
मुझ तक सीमित हैं जब तक
सब ठीक है-सुंदर है तब तक
हो जाएंगे जब कभी मुखरित
बहुत सताएंगे सवाल तुमको
फ़िर तुम चिल्लाओगे
स्त्री होकर सवाल करती है !
ये क्या बवाल करती है?
सोच लो !
क्या तुम तैयार हो
मचते बवाल के लिए
उठते सवाल के लिए ?
चित्र : आभार - गूगल
वाह सुशीला जी ………अति उत्तम कृति।
ReplyDeleteआज खोजती हूँ खुद को
ReplyDeleteपूछती हूँ खुद से
कौन थे तुम
जो आए अचानक
लील गए सपने मेरे
बो दिए सपने अपने
भीतर मेरे-बहुत गहरे
पूछती हूं पा एकांत खुद से
कर पाईं क्या न्याय स्वयं से तुम
मेरे भीतर उठते इन सवालों से
सचमुच बहुत डरती हूं... बाद में आत्म प्रलाप ही रह जाता है
sachchai ko kavya me bahut sahaj shabdon me abhivyakt kiya hai susheela ji,stri jeevan ki yahi vidambna hai use vastav me sawal karne ka bhi haq kahan deta hai yah samaj.yaha to adhikar chheenna hi nari jeevan ka lakshay banta ja raha hai.bahut sundar bhavabhivyakti.होली की बधाई और शुभकामनायें .
ReplyDeleteबेहद अच्छी रचना।
ReplyDeleteआपको महिला दिवस और होली की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएँ।
सादर
सोच लो !
ReplyDeleteक्या तुम तैयार हो?
- सुशीला जी ,तैयार तो होना पड़ेगा ,आखिर कहाँ तक टाल पायेंगे !
मेरे भीतर उठते इन सवालों से
ReplyDeleteसचमुच बहुत डरती हूं
मुझ तक सीमित हैं जब तक
सब ठीक है-सुंदर है तब तक
हो जाएंगे जब कभी मुखरित
बहुत सताएंगे सवाल तुमको
बहुत सशक्त रचना सुशीला जी....
आपको वुमंस डे और होली की बधाई...
आज खोजती हूँ खुद को
ReplyDeleteपूछती हूँ खुद से
कौन थे तुम
जो आए अचानक
लील गए सपने मेरे
बो दिए सपने अपने
भीतर मेरे-बहुत गहरे
पूछती हूं पा एकांत खुद से
कर पाईं क्या न्याय स्वयं से तुम
मेरे भीतर उठते इन सवालों से
सचमुच बहुत डरती हूं
बहुत सुंदर प्रस्तुति,अच्छी अभिव्यक्ति....
सुसीला जी,..सपरिवार होली की बहुत२ बधाई शुभकामनाए...
RECENT POST...काव्यान्जलि
...रंग रंगीली होली आई,
बहुत सार्थक रचना .... बदलाव के लिए तैयार होना ही होगा ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी रचना..होली की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteआपकी रचना को पसन्द करने वालों में महिलाएं ज्यादा है .जाहिर है व्याप्त आक्रोश है. पुरुष प्रधान समाज में
ReplyDeleteनारी को बराबर का दर्ज़ा मिला होता तो आज अंतर इतना न रहता .खुबसूरत अभिवयक्ति
man ko bahut gahre sparsh kar gai aapki rachna. Meena kumari ki ye tasweer stree ke ghayal man ki peeda ko darshaati hai. sahab bibi aur gulam mein Meena kumari ka abhinay har stree ko rula deta hai. sirf aaj hi nahi har yug mein aisi hi dasha...
ReplyDeleteस्त्री होकर सवाल करती है !
ये क्या बवाल करती है?
saarthak rachna ke liye badhai sweekaaren.
वाह ह्रदय से निकले शब्द ...बहुत खूब
ReplyDeleteपूछती हूं पा एकांत खुद से
ReplyDeleteकर पाईं क्या न्याय स्वयं से तुम.....ना जाने कितनी मिलती जुलती स्तिथियाँ दुबकी बैठी है आज भी ....इसी प्रश्न का उत्तर खोजती !!!....बहुत सुन्दर प्रस्तुति !!!!!
स्त्री होकर सवाल करती है !
ReplyDeleteये क्या बवाल करती है?
सोच लो !
क्या तुम तैयार हो
मचते बवाल के लिए
उठते सवाल के लिए ?
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
वाह! सार्थक रचना...
ReplyDeleteसादर.
सच में बहुत सुंदर और सच्ची है आपकी कविता.. सुंदर भाव सशक्त रूप में उभरे हैं।
ReplyDeletekamal ka likha hai sushila ji apne .....teekha vyang ...bahut bahut abhar.
ReplyDeletesunder .bahut accha likha shushila ji
ReplyDeleteaapke blog par aana accha laga . aapko foloow karti hoon .
sarthak rachna .
mere blog par aane ke liye abhar . swagat hai aapka .
सार्थक प्रश्नों को खड़ा करती है आपकी रचना ...ये सच है की नारी को सदियों से पुरुष अपनी दासता का शिकार बनाता आया है ... कभी डरा के कभी देवी का नाम दे के ... पर अब समय बदल रहा है ... आर्थिक स्वतंत्रता नारी के मन में आत्मविश्वास भर रही है जो सुखद है ...
ReplyDeletebahut hi satik nd sarthak rachna.
ReplyDeleteआपकी कविता नारी के दृढ़ स्वत्व को प्रकट करती है. सवालों से पुरुष घबराता है, यह सच है. सुंदर रचना.
ReplyDelete"पूछती हूं पा एकांत खुद से
ReplyDeleteकर पाईं क्या न्याय स्वयं से तुम
मेरे भीतर उठते इन सवालों से
सचमुच बहुत डरती हूँ " इन पंक्तियों में स्त्री का आत्मसंघर्ष अपना आत्म-साक्षात्कार करता है और यही दरअसल इसका टर्निंग प्वॉइंट है, स्त्री का सोच-संकल्प इसी बिन्दु पर आकर ठहरा हुआ है, जिस क्षण यह एक समग्र निर्णय में बदल जाएगा, वह सवाल करने के अधिकार को निश्चय ही अर्जित कर लेगी, वहीं से यह परिवर्तन की आकांक्षा अपना आकार ग्रहण कर सकेगी। साधुवाद।