सड़क पर भविष्य
कचरे का ढेर
ढेर पर बच्चे
बीनते जूठन
नज़रें चुरा निगलते
देखा है अक्सर इन में
भविष्य भारत का मैंने !
भारत का वर्तमान
भारत का वर्तमान
दौड़ता है सरपट
फ़ेरारियो में
बढ़ जाता है आगे
लाद कर जिम्मेदारियाँ
ज्ञात-अज्ञात
रोकती हैं लाल बत्तियाँ
चौक-चौराहे, गली मुहाने
आ ही जाती हैं याचनाएँ
पसर जाते हैं हाथ
खीजता-सा वर्तमान
चढ़ा लेता है शीशे ऊपर
ऊपर-और ऊपर
मानो ढक दिया है उसने
भविष्य भारत का !
वर्तमान देखता है
मनचाही तस्वीर-
खटते मासूम बच्चे
पत्थर तोड़ते कोमल हाथ
बोझा ढोते कमज़ोर कंधे
चूड़ी-बीड़ी के कारखानों में
कुम्हलाया मासूम बचपन
विकासशील विशाल अट्टालिकाएँ
बेखौफ़ पालती हैं
बंधुआ मज़दूर
बीन कर बचपन !
होते ही हरी बत्ती
होते ही हरी बत्ती
निकल जाता है
दौड़ता वर्तमान
रह जाता है निपट अकेला
सड़क पर भविष्य
खोल कर आँखें
पूछता है उसका बचपन
कब दोगे मुझे
मेरी आज़ादी
कल मेरा भी होगा
खुला आसमान
बताती थी दादी !
-सुशीला शिवराण
चित्र - साभार google
पूछता है उसका बचपन
ReplyDeleteकब दोगे मुझे
मेरी आज़ादी
कल मेरा भी होगा
खुला आसमान
बताती थी दादी !
सही प्रश्न !!
बहुत सशक्त और सार्थक रचना...
ReplyDeleteहमारे समाज की एक कड़वी सच्चाई बयाँ करती.....
मगर बदलाव के लिए हम कुछ कर रहे हैं क्या????
सादर.
एकदम सच बात कहती कविता।
ReplyDeleteसादर
sach k rubru....sashakt bhav piroye hai'n....
ReplyDeleteकब दोगे मुझे
ReplyDeleteमेरी आज़ादी
कल मेरा भी होगा
खुला आसमान
बताती थी दादी...
सच कहती सुंदर रचना,अच्छी प्रस्तुति...
MY RESENT POST ...काव्यान्जलि ...: तब मधुशाला हम जाते है,...
बचपन का यह सवाल अंतहीन है
ReplyDeleteसुन्दर ।
ReplyDeleteप्रभावी प्रस्तुति ।।
कडुवी सच्चाई है जिसको आपने शब्द दिया हैं ... बचपन आज खो रहा है इनका ...
ReplyDeletesunder sarthak prastuti............
ReplyDeleteहमने अभी बचपन को मानव संसाधनों में सलीके से शामिल नहीं किया. उसे कुपोषण का शिकार होने के लिए रख छोड़ा है. हमारा भविष्य तदनुसार दिखता है. चेतावनी भरी बहुत सुंदर रचना.
ReplyDeletebahut srthak rachna
ReplyDeletesunder satik sarthak post .........badhai
ReplyDeleteबहुत से प्रश्नों के उत्तर मांगती हुई सार्थक पोस्ट आभार
ReplyDeleteएक सार्थक रचना!
ReplyDeleteकाश, इसका जल्द-से-जल्द उन्मूलन हो सके.
ReplyDeleteसार्थक रचना.
सादर
समाज की विसंगति को बखूबी लिखा है ...अच्छी रचना
ReplyDeleteबस सिर्फ यही सुकून है ...की भविष्य कभी तो वर्तमान होगा ....तब उसका भी अपना एक खुला आसमान होगा!...सामयिक और सुन्दर !
ReplyDelete
ReplyDelete♥
कचरे का ढेर
ढेर पर बच्चे
बीनते जूठन
नज़रें चुरा' निगलते
देखा है अक्सर इन में
भविष्य भारत का मैंने !
आहऽऽ… ! हृदयविदारक स्थिति का चित्रण किया है आपने !
आदरणीया सुशीला बहन जी
बहुत भावपूर्ण लिखा है आपने…
बेबस बेघर बच्चों के लिए लिखे मेरे एक गीत की कुछ पंक्तियां आपके लिए -
छूटे हमसे अपने छूटे !
मा'सूमों के सपने टूटे !!
किस-किस से की हाथापाई !
बीन के कचरा रोटी खाई !
सिक्के चार हाथ में आए ;
हाय ! छीनले पुलिस कसाई !
ऊपर से थाने ले जा कर
नंगा कर के बेंत से कूटे !!
कभी पूरा गीत सुनाउंगा… … …
आपकी पिछली सभी पोस्ट पढ़ चुका हूं …
समय-स्थिति-सुविधा न होने के कारण विस्तार से बात नहीं कर पा रहा हूं…
क्षमाभाव बनाए रहें
हार्दिक शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
मारा मारा मर रहा, बचपन प्यारा हाय
ReplyDeleteअम्बर के तारे यहाँ, तनिक चमक ना पाय
आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
ReplyDeleteमार्मिक रचना...उत्कृष्ट लेखन ..बधाई स्वीकारें
नीरज
हमारी प्रगति और विकास के दावों की पोल खोलता कटु यथार्थ ....सशक्त रचना
ReplyDeleteबहुत बढ़िया,बेहतरीन करारी अच्छी प्रस्तुति,..
ReplyDeleteनवरात्र के ४दिन की आपको बहुत बहुत सुभकामनाये माँ आपके सपनो को साकार करे
आप ने अपना कीमती वकत निकल के मेरे ब्लॉग पे आये इस के लिए तहे दिल से मैं आपका शुकर गुजर हु आपका बहुत बहुत धन्यवाद्
मेरी एक नई मेरा बचपन
कुछ अनकही बाते ? , व्यंग्य: मेरा बचपन:
http://vangaydinesh.blogspot.in/2012/03/blog-post_23.html
दिनेश पारीक