वीथी

हमारी भावनाएँ शब्दों में ढल कविता का रूप ले लेती हैं।अपनी कविताओं के माध्यम से मैंने अपनी भावनाओं, अपने अहसासों और अपनी विचार-धारा को अभिव्यक्ति दी है| वीथी में आपका स्वागत है |

Sunday 19 June 2011

आभार


आभार

आपकी बाहों ने पालना बन झुलाया मुझे
हाथों ने स्नेहिल थपकी दे, सुलाया मुझे
ग्रन्थ,फौज, वीर-वीरांगनाओं की विरुदावली
भोर हुए भजनों की,गूंजे कंठ से स्वर-लहरी


पढ़ाई हो, अन्य क्रिया-कलाप या खेल-कूद
दिया सम्बल सर्वदा, हौंसला हमेशा अकूत
सीमित साधनों में, दिया असीम स्नेह मुझे
बेटी नहीं, बेटा बनाकर; आपने पाला मुझे


अनुशाशन और सच्चरित्र की दी दीक्षा मुझे
आत्म-विश्‍वासी, निडर होने की शिक्षा मुझे
कर्म और सच्चाई का न छोड़ना कभी साथ
ईश्‍वर का आशीष सदा रहेगा तुम्हारे साथ


आपके आदर्शों पर चल, मैंने तो जीना सीखा
आप-सा ही निर्मल ह्रदय, प्यार बाँटना सीखा
सफलता और सम्मान खूब पाया जग में
आपके स्नेह; शिक्षा की लिए लौ मन में




टिपण्णी - यहाँ मैं ये बताना चाहूंगी कि मेरे पिता का नाम श्री ईश्‍वर सिंह है| तीसरे पद्यांश की चौथी पंक्ति में ईश्वर से मेरा अभिप्राय परम पिता परमे्श्‍वर और मेरे पिता दोनों से है | अतः यहाँ श‍लेष अलंकार हुआ |






















Tuesday 14 June 2011

माँ भारती के उद्गार.....




अक्सर याद आती है मुझे सन सत्तावन की लड़ाई 
जब आसमां पर आज़ादी की बिजली थी कौन्धियाई 
याद कर उस वीरांगना की तरुण,तेज़,तलवार की धार 
आँखों से झर-झर आँसू झरे; बही अनवरत अश्रु-धार !



उसके बाद शहीदों की है लम्बी एक कतार

जिसमे प्रमुख बापू ,तिलक,गोखलेऔर सरदार
सुभाषचंद्र, भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जिनकी मेरे सीने में, अब भी हैं अमिट याद !

किस-किस का मैं नाम पुकारूं ?
अनगिनत थे वे मेरे सपूत हज़ारों 
जिन्होंने अपना रक्त बहाकर, किया जटिल काम महान 
स्वर्णिम अक्षरों में लिख गए; मेरी आज़ादी का फरमान !

आज़ादी की ख़ुशी में नाच उठा मेरा अंग-अंग
किन्तु शीघ्र ही जैसे; मेरा स्वपन हुआ भंग !भ्रमित, अचंभित, नि:शब्द मैं ; थी ये सोच रही भाई-भाई में द्वेष, नफ़रत ये कैसी पनप रही ?

हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई 
भेदभाव की क्यों दीवारें उठ आईं ?
मंदिर, मस्जिद, गिरजा और गुरुद्वारा 
श्रद्धा नहीं अब हथियारों का बने जखीरा !

जब भी किसी का खून है बहता
माँ का सीना चीत्कार उठता उन अमर वीरों की कुर्बानी न व्यर्थ गँवाओदीवानों अब भी; कुछ तो होश में आओ ?

माँ भारती के दिल की धड़कन तो पहचानो !
मेरी ही काया के भिन्न अंग हो तुम ये जानो 
खंडित होकर तुम, केवल विनाश को पाओगे 
नासमझो फिर से अपनी आज़ादी भी गँवाओगे !

धर्म,जाति,सम्प्रदायों में बँटकर, टूट और मिट ही जाओगे 
हिंसा, आंतक के सागर में; प्रेम और बंधुत्व कहाँ पाओगे?धर्म के नाम मौकापरस्तों ने सदा; दिए वो घाव, ऐसी टीसस्वर्णमंदिर, बाबरी, रथयात्रा; निरंतर वेदना रही है रिस !

पाकिस्तान, बांग्लादेश; तो कभी सुगबुगाए खालिस्तान 
निरंतर कश्मीर सुलगे, बोडो दह्काएँ मेरा शांत आसाम 
कभी मराठा हिंसक हो लें; कभी नक्सल बर्बर हो लें 
आतंकवाद कहर ढाए; दिल्ली, जयपुर, मुंबई दहलें !



कब तक नफ़रत, हिंसा, लहू, लाशें और विनाश ?

निर्माण की बातें करो, होने दो प्रगति और विकास
सहत्र कोटि बाहुबल, अब प्रगति-पथ पर डाल दोअतुल्य भारत को, नव-प्रभात, सुबह-सवेरा दो !

शस्य श्यामल धरा को, प्यार से सुवासित करो 
वात्सल्य से सींचो, देश-प्रेम से पोषित, सुदृढ़ करो 
गूंजें वेदवाणी, अज़ान, शबद, हिं (hymn)फिर से यहाँ 
विज्ञान-तकनीक से समृद्ध,ऐसी अनुपम धरा कहाँ !




Wednesday 8 June 2011

दुआ


                                                                          दुआ 

जिंदगी इम्तिहान भी है
यह सुंदर अरमान भी है
लोगों का यहाँ रेला है
आदमी फिर भी अकेला है !

जिंदगी ढकोसला भी हैहर इन्सां खोखला-सा है
फिर भी मिलते हैं कुछ शख्स
जो दिल को छू लेते हैं , बस !


उनके विचार और कर्मों में
निहित है उनकी ही छवि
उनकी सोच और भावों से
मन को मिलती दिशा नई|

उनके वज़ूद की सुन्दरता
चेहरे पर भी साफ़ झलकतीउनकी सरल निश्छलता
दिलों में उन्हें बसा जाती!

स्फटिक-सा उजला लिए हैं मन
सोचें तो केवल भले की, हर क्षण
लाभ की तुला में हर कर्म नहीं तोलते
जग की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी खोजते|

उनसे परिचय और वार्तालापबन जाता सुखद अनुभूति
हाथ करबद्ध दुआ में उठते
प्रभु! कर ऐसे लोगों की सृष्टि|




Monday 6 June 2011

मेरी कामना






मेरी कामना 


फूलों से खिलो; महको
दिनकर से दमको तुम
कर सद्गुणों का विकास
चंदा से चमको तुम!

प्रभु ने तुम पर स्नेह छलकाया
दे प्रेम, स्नेह, ममता की छाया
जीवन का तुमने अमृत है पाया
दुखों का कभी भी पड़े न साया! 


तुम में अक्सर मैंने, स्वयं को पाया
लगा गया बचपन, फिर लौट आया 
इतनी श्रद्धा, सरलता और निश्छलता
जगा गई तुम्हारे प्रति प्रेम, निकटता!
       

देख तुम्हारी प्रगति, मन मेरा हर्षाया
यूँ ही करो उन्नति , यही ख्याल आया
सदा ही आगे प्रशस्ति-पथ पर बढ़ना तुम
जग के आसमां पर, सूर्य से चमकना तुम!


फूलों से खिलो; महको
दिनकर से दमको तुम
कर सद्गुणों का विकास
चंदा से चमको तुम!



Sunday 5 June 2011

कुचला स्वाभिमान




                                                      कुचला स्वाभिमान 

कुचला हुआ स्वाभिमान सँभालता
नैतिक-अनैतिक बीच त्रिशंकु-सा
झल्लाता, झेंपता, खींसे निपोरता
यह भारत का आम आदमी है!

कहीं किसी बड़े दफ्तर का प्रभारी       
पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी
न्यायाधीश;अन्याय की लाचारी !
राजनीति सत्ता;सब पे भारी !         

नेताओं के जूतों की धूल झाड़ता
पतन के किस गह्वर में गिरता !

झल्लाता, झेंपता, खींसे निपोरता
यह भारत का आम आदमी है !


घोटालों की है एक लंबी श्रंखला
बोफोर्स, कॉमनवेल्थ, 2G,चारा
कहीं दो जून रोटी को तरसता
भूखा,अनपढ़ बचपन बिलखता
काला धन स्विस लोक्कर में अटता
पोसे परदेस, चरमरा अर्थ-व्यवस्था !

झल्लाता, झेंपता, खींसे निपोरता
यह भारत का आम आदमी है !


किंचित हमारी सहिष्णुता
बन गई हमारी अकर्मण्यता
बाँध तोड़ दिए हैं सब

भ्रष्टाचार के सैलाब ने
इससे पहले की लील जाए
चेतन बनो, खोजो उपाय!

झल्लाता, झेंपता, खींसे निपोरता
यह भारत का आम आदमी है !


जे.पी., अन्ना, किरण, केजरीवाल
किस-किस का सहारा लोगे तुम ?
अपने अधिकार की लड़ाई में कहो
किस-किस को मसीहा बनाओगे तुम?
बहुत हुआ कसम उठा लो, सब साहस जोड़ के
अपने मसीहा आप बनोगे,अब कायरता छोड़ के !

कुचला हुआ स्वाभिमान सँभालतानैतिक-अनैतिक बीच त्रिशंकु-सा
झल्लाता, झेंपता, खींसे निपोरता
यह भारत का आम आदमी है !






                                              

Saturday 4 June 2011

मीता



मीता



दुनिया में जितनी भीड़ है 
मनवा में उतनी पीड़ है ..........

मर्म इसका, दर्द इसका, मैंने यहीं जाना 
भीड़ में इन्सान हो सकता अकेला, माना !


कार्य-क्षेत्र की इन दरो-दीवारों के बीच 
अपने से चेहरों, अजनबी भाषा के बीच !


मन हुआ नितांत अकेला 
दिन सूने और दिल रीता !


जीवन के मरू में, तुम आई बन बरखा 
खुशियों का झोंका, तुम ही तो लाई मीता !


मुरझाए-से दिल में, तुम ही लाई नव-उल्लास 
कैसे मैं भूलूंगी , यह वक्त, यह हास-परिहास !


कानों में गूंजेगी जब, तुम्हारी मीठी खिलखिलाहट 
दिल पर दोगी दस्तक, मन में तुम्हारी ही आहट !

बिन तुम्हारे कैसे कहूं , यहाँ होगी कितनी विरानगी 
मेरे ही जीवन में आया ठहराव, बाकी वही रवानगी !


जाओ, निभाओ नेवी का दस्तूर, ओ मेरी मीता !
इस खुशनुमा झोंके की लेकिन, मुझे सदा ही प्रतीक्षा !



Thursday 2 June 2011

सिक्के के दो पहलू


सिक्के के दो पहलू 

बात उन दिनों की है जब मैं सन 1993 में तीसरी कक्षा को गणित पढ़ाया करती थी | अभिभावकों के साथ मेरे अनुभव कुछ यूँ रहे - 

पहला पहलू 

शिक्षिका विद्यार्थियों से -

पिछले एक सप्ताह से आप 
पहाड़े याद नहीं कर रहे हो 
केवल हर दिन 
समय व्यर्थ गंवा रहे हो !
यदि आज भी आप
पहाड़े याद नहीं करोगे
तो सज़ा जरूर पाओगे |

दूसरे दिन एक बच्ची की मम्मी का नोट -


मेरी बेटी बहुत छोटी है 
सज़ा की बात कर मत डराइये
समय के साथ सीख जाएगी 
थोड़ा सब्र रखिये 
कुछ अंक कम आयेंगे 
कौन याद रखता है ?
सब भूल जायेंगे !
मेरी बात पर गौर कीजिये 
मेरी बेटी को सज़ा मत दीजिये !

शिक्षिका किम्कर्तव्य-विमूढ़ है
क्या नहीं ये समस्या गूढ़ है ?

दूसरा पहलू 

एक मम्मी शिक्षिका से -

क्या U .T . के पेपर चेक हो गए ?
ज़रा मेरी बेटी के नंबर तो बताइये !

शिक्षिका - 

आपकी बेटी ने बहुत ही अच्छा किया है
पूर्णांक में से बस एक अंक कम मिला है !

                                        यह सुनते ही मम्मी के चहरे का रंग बदल गया 
                                         खुशनुमा लालिमा की जगह पीलापन छा गया !

बेटी से मुखातिब होकर बोलीं  - 

बच्चे कितनी अच्छी तरह से तुम्हारी तैयारी करवाई
फिर भी तुम गलती कर,  एक नंबर कम ले ही आई 
scholar badge  की उम्मीद पर पानी फिर गया 
यह सोचकर मेरा तो जैसे कलेजा ही बैठ गया !

                                         यह सुन, देखकर शिक्षिका विचलित है !
                            बच्चों का बचपन क्या नहीं हो रहा कुंठित है?