वो भी एक समय था
यह भी एक समय है
जब थी पावन-अमृत,गुरु-चरणों की धूल
अब शिष्य निज-गौरव,संस्कृति बैठे हैं भूल
जब गुरु थे ब्रह्मा, गुरु थे विष्णु, गुरु ही थे महेश
जब गुरु थे ब्रह्मा, गुरु थे विष्णु, गुरु ही थे महेश
अब तो यह गरिमा केवल, नाम को रह गई है शेष
एकलव्य की गुरु निष्ठा इतिहास हो गई
आज विद्यार्थी की निष्ठा परिहास हो गई !
चरित्र, विद्या, ज्ञान; इनका था सर्वोच्च मान
सरस्वती दब गई कहीं, लक्ष्मी हुई विराजमान
सरस्वती दब गई कहीं, लक्ष्मी हुई विराजमान
तब शिष्यों के प्रति, गुरुओं में था पूर्ण समर्पण
होता विद्या-दान नहीं; पैसा, ट्यूशन है आकर्षण
गुरु-शिष्य परम्परा में,यह परिवर्तन है निंदनीय
संस्कृति की अवनति! यह परिवेश है शोचनीय
लगता नहीं यह परिवर्तन ज़रा भी शोभनीय
आओ फिर से दें इसे, वो दिव्य रूप वन्दनीय
sundar prsturti... happy teacherday...
ReplyDeleteआपकी शुभ इच्छा महत्वपूर्ण है. लेकिन आज यह कहा जाता है कि कलियुग में सरस्वती और लक्ष्मी की मित्रता हो गई है. जहाँ आज की पीढ़ी पहुँच चुकी है वहाँ से लौटना संभव नहीं लगता.
ReplyDeleteआपको मेरी रचना अच्छी लगी, बहुत-बहुत धन्यवाद सागर जी !
ReplyDeleteभूषण जी! आपके विचारों से सहमत हूँ | किन्तु हमें निरंतर प्रयासरत तो रहना ही होगा तभी परिणाम भी मिलेंगे ! आज मेरी फेस बुक भरी है मेरे वर्तमान और पुराने विद्यार्थियों के शुभ संदेशों से | बहुत बल और हौंसला देते हैं ये पुराने विद्यार्थी जो आज चिकित्सक, अभियांत्रिक, सेना में अधिकारी , प्राचार्य और उभरते कलाकार हैं | बहुतों की शादियाँ और सगाइयां हो चुकी हैं | आज भी निमंत्रण भेजते हैं विवाह में आने का | कुछ के अपने बच्चे भी हो चुके हैं | उन्हें पिछले १५ वर्षों से नहीं पढ़ा रही फिर भी हर ख़ास दिवस और त्यौहार पर शुभकामना देना नहीं भूलते ! दिल गद-गद हो जाता है ! सम्मान और स्नेह की परम्परा कायम और जीवन भर उसे पोषित करने का प्रयत्न करती रहूँगी |
ReplyDeleteआप भी आशीर्वाद और शुभकामनाएँ देते रहिये |जो बाकी है उसे सहेजकर और पुष्ट करना है |
आपकी हर टिपण्णी मेरे लिए विशेष महत्त्व रखती है |
हाँ पहले और आज मे काफी परिवर्तन हो चुका है फिर भी यह हमारा फर्ज़ है कि अपने गुरुजनों के प्रति हमेशा कृतज्ञ भाव अपने मन मे रखें ।
ReplyDeleteआपकी यह कविता परिवर्तन के बहुत से पहलुओं पर प्रकाश डालती हैं।
सादर
गुरु-शिष्य परम्परा में, यह परिवर्तन है निंदनीय
ReplyDeleteसंस्कृति की अवनति! यह परिवेश है शोचनीय ....आज गुरु-शिष्य परम्परा तो इतिहास होगया .आज दोनो ही बदल गये है अब वो
श्रद्धा भाव कहाँ.......हमारी संस्कृति को उजागर करती सुन्दर रचना
सुन्दर संवेदनशील सकारात्मक अभिव्यक्ति...
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