वीथी

हमारी भावनाएँ शब्दों में ढल कविता का रूप ले लेती हैं।अपनी कविताओं के माध्यम से मैंने अपनी भावनाओं, अपने अहसासों और अपनी विचार-धारा को अभिव्यक्ति दी है| वीथी में आपका स्वागत है |

Sunday 27 November 2011

सन्नाटा बुनती रात






घनी काली गहराती रात
शांत अनमनी स्तब्ध रात
बढ़ता प्रकोप शीत का
कुछ सोईं कुछ जागीं
उनींदी, बोझिल आँखें
नर्म,गर्म बिस्तर में
मांगती ढूँढती
कुछ पल मीठी नींद |

यकायक
चीर गई सन्नाटा
मोबाईल की रिंग टोन
मानो बिजली सी कौंध गई
सोने को आतुर शहर के कानों में
मेरा भी सीना लरज गया
हुई हड़बड़ाहट आवाक
दिल की धक्-धक् थम गई 
फ़ोन था छोटे बेटे का
उसके संयत स्वर में
ये कैसा तूफान था
कितना उत्तेजित
कुछ बौखलाया-सा
कुछ मौन सा
कुछ कुछ बोलता सा
"माँ टी.वी. खोलो -
खोला टी.वी.
थम गई साँसे
देख रही जो
साक्षात देखा जो आँखों ने
मान न पाई मेरी आँखें !

चौपाटी, वी.टी. का नरसंहार
खुली सड़क पर था हाहाकार
हैण्डग्रेनेड,ए.के-47 ले घूम रहे
अंधाधुंध मौत थे बाँट रहे !
मौत का था खुला तांडव
वह कैसा वहशीपन था
अल्लाह-ज़िहाद ओ इंसानियत का
किया था खून दरिंदों ने
जिसको गोली मारी
ना जाने वो पथिक
हिन्दू था या मुसलमां
हलाल हो बिखर गया
बिखर गया घर-परिवार,
रोया बचपन हुआ अनाथ !

मौत से कभी ना हारी ज़िन्दगी
अपना जीवन जीती ज़िन्दगी
हेमन्त करकरे और कामटे
सालसकर और ओम्बले
न कर परवाह गोलियों की
बीच समर में कूद गए
खा गोलियां सीने पर 
अरि दमन कर डाला
कायर कसाब को धर दबोच
देश धर्म निभा डाला |

आज सालगिरह है तीसरी
सूने सबके दिल के साज़
आँखों में क्रोधाग्नि लिए
हिन्दुस्तानी माँगें जवाब
खिलाते हो जिसे बिरयानी
क्या भारत का दामाद बनाओगे
रूपये करोड़ों बहा कर
करते हो हिफाज़त कातिल की
दो जून तरसती जनता को
तुम रोटी कब खिलाओगे ??

Sunday 20 November 2011

झाँसी की रानी




मणिकर्णिका, मनु कहो या कहो लक्ष्मीबाई
देशभक्ति की अलख वो दिलों में जगा गई

अस्त्र-शस्त्र से खेला करती मोम-सा दिल लिये
बाबा की चहेती वो रिपु-दमन हमें सिखा गई

पराधीनता, अन्याय, ज़ुल्म की वो बैरी थी
झाँसी की थी रानी उसीपे प्राण लुटा गई

रण औ बलिदान का पाठ सब को पढा गई
मर के भी कैसे जीते हैं दुनिया को दिखा गई



१९ नवम्बर को रानी लक्ष्मी बाई का जन्मदिन था | उनके जन्मदिन पर

मेरी यह रचना उन्हें समर्पित | शत-शत नमन !

नेता पुराण




खद्दर राखै चमक्योड़ी,  खूब धोळी अर ऊजळी
जनता नै ये खूब बिलमावैं, बोलैं झूठ मोकळी

इणको धरम एक, करम एक, कुरसी है इणको राम
देस, जनता जावै भाड़ मैं इणनैं बस माया सूँ काम

वोटां खातर नित नई चाल और पाखंड खिंडावैं
कदे शाहबानो, भँवरी और रूचिका नै बलि चढावैं

कदे जाट, कदे गुजर तो कदे मीणां नैं देवैं आरक्षण
है या राजनीति वोटां की, मूळ मैं है अणको भक्षण

इण सब री है एक ही जात और एक ही है औकात
मिली कुर्सी लूट; डर नीं भाया बेईमानी रो सूत कात

सुशीला श्योराण

Sunday 13 November 2011

बदल गई ज़िन्दगी



बदल गई ज़िन्दगी
==========

अभावों में था
सब कुछ
कुछ न होते हुए भी
उमंग थी
हास भी और उल्लास भी
जो झलकता था पासंग ।

अब सब कुछ है
बस हंसी नहीं है 
जीवन में और होठों पर
न मन में उमंग
न चेहरे पर हंसी
न क्रियाओं में उल्लास !

ज़िन्दगी है दौड़ती हुई
दौड़ते जा रहे हैं हम
चाहे-अनचाहे 
छोटी-छोटी खुशियाँ
अपने-सपने
सब कुछ पीछे छोड़ते
रेल की तरह
एक ही दिशा में !

मिठाई- नए कपड़े
त्यौहार पर ही आते
खूब खींचतान के बाद
जिन्हें पा कर
हो ही जाती थी बाग-बाग
मानो खुल गए हों भाग
वह खुशी
वह मिठास
महीनों बिसुरती नहीं थी
अब जब आते ही रहते हैं
इशारों पर
परिधान और मिठाईयाँ
मगर अब कहाँ वह मिठास
इन मिठाइयों में
कहाँ वह उमंग-ओ-हुलास
मैचिंग वाली ड्रैस में
जो था
पट्टेदर पजामे
और
पोपलीन-फ़ुल्लालेण वाले झबले में !

डाकिये की आवाज सुन
खिल ही जाता था
अम्मां का चेहरा
उन के संग
घर भर में
कितने चेहरे खिल जाते
जब पढी़ जाती आँगन में
दूर-दिसावर से आई
बापू की प्रीत रची पाती
उस प्यारी पाती को
कितनी बार पढ़ जाते
हर अक्षर कुछ जोड़ जाता
बहुत गहरे पैठ जाता ।

अब तो
तुरत-फ़ुरत होती हैं बात
बात भी बेबात
मोबाइलिया वार्तालाप
जिस में नहीं होती
कोई बेताबी
इंतजार भी होता है क्षणिक
जो मिट ही जाता है
अनचाही रिंगटोन के साथ
अब तो
काल का इंतज़ार
करता है बोर
बेकरारी लगती है बेकार
उतरती ही नहीं
खुमारी प्रीत की
बिल जता देता है
बहुत हुआ
इतनी बहुत है खुशी !

फ़ेसबुक पर है
चाहे-अनचाहे दोस्तों की
अथाह भीड़
कौन समझे
किसी की पीड़
दो-चार नहीं
सैकड़ों रहते हैं कतार में
हर दिन
जुड़ते-घटते भी जाते हैं
मगर घटते नहीं
दिल-ओ-दिमाग में पसरे दर्द ।

लाईक-कमेण्ट करते -करते
याद भी नहीं रख पाते
कब क्या लिखा
याद आते हैं
बचपन के दोस्त
जो समझते थे अनकही
जानते थे गलत सही
जो एक सा रोया करते
एक सा हँसा करते
हमारे और अपने
दुख-सुख में
हमेशा हमारे साथ ।

शादी की तैयारियाँ
महीनों चलतीं
लगन-बान-टीका
गीतों की महफ़िल सजती
रातीजोगा होता
उबटन-मेंहदी और हल्दी
पंगत-संगत में होती
साँझे चूल्हे पकती प्रीत ।
अब
विवाह होते ठेकों पर
गीत-संगीत
भोजन-कलेवा ठेकों पर
ना जुड़ते रिश्ते
ना जुड़ते दिल
बनावटी हँसी
गलों में डाल बनावटी मालाएँ
मिल लेते हैं गले
फ़िर ये चले ओर वो चले ।

देर रात
कलम लिए हाथ में
सोचती हूँ मैं
अब लिखूं क्या
इस जीवन का
जिस में तैर रही है
चारों और संवेदनहीनता
बदलते समय के साथ
कितनी बदल गई है ज़िन्दगी
वो तत्व अब कहाँ हैं
जीवन में जो भरते थे रस
लोग उनको रहे हैं तरस ।

सुशीला श्योराण



Friday 4 November 2011

प्रीत




मन पखेरू
उड़ चला 
पंख प्रीत के 
प्रीत ही ध्येय 
प्रीत अमिय !

बढ़ चला
हौंसला प्रीत का
मिटाने फ़ासला
प्रीत ही संबल 
अवलंबन भी प्रीत ही !

हार-जीत
जय-पराजय
सोचती कहाँ है प्रीत
लुटा कर सब
पा लेती है
पग-पग पगती प्रीत !

प्रिय से बात 
प्रिय का साथ
प्रिय का स्नेह 
प्रिय का हाथ 
आया हाथ
महक उठी प्रीत !

थोड़ा प्यार
थोड़ी मनुहार 
थोड़ी जिद्द 
थोड़ा दुलार 
बस यही जीवन-पूँजी
जिसे लुटाकर 
पाना है सार प्रीत का 
प्रश्‍न कहाँ हार-जीत का !