बदल गई ज़िन्दगी
==========
अभावों में था
सब कुछ
कुछ न होते हुए भी
उमंग थी
हास भी और उल्लास भी
जो झलकता था पासंग ।
अब सब कुछ है
बस हंसी नहीं है
जीवन में और होठों पर
न मन में उमंग
न चेहरे पर हंसी
न क्रियाओं में उल्लास !
ज़िन्दगी है दौड़ती हुई
दौड़ते जा रहे हैं हम
चाहे-अनचाहे
छोटी-छोटी खुशियाँ
अपने-सपने
सब कुछ पीछे छोड़ते
रेल की तरह
एक ही दिशा में !
मिठाई- नए कपड़े
त्यौहार पर ही आते
खूब खींचतान के बाद
जिन्हें पा कर
हो ही जाती थी बाग-बाग
मानो खुल गए हों भाग
वह खुशी
वह मिठास
महीनों बिसुरती नहीं थी
अब जब आते ही रहते हैं
इशारों पर
परिधान और मिठाईयाँ
मगर अब कहाँ वह मिठास
इन मिठाइयों में
कहाँ वह उमंग-ओ-हुलास
मैचिंग वाली ड्रैस में
जो था
पट्टेदर पजामे
और
पोपलीन-फ़ुल्लालेण वाले झबले में !
डाकिये की आवाज सुन
खिल ही जाता था
अम्मां का चेहरा
उन के संग
घर भर में
कितने चेहरे खिल जाते
जब पढी़ जाती आँगन में
दूर-दिसावर से आई
बापू की प्रीत रची पाती
उस प्यारी पाती को
कितनी बार पढ़ जाते
हर अक्षर कुछ जोड़ जाता
बहुत गहरे पैठ जाता ।
अब तो
तुरत-फ़ुरत होती हैं बात
बात भी बेबात
मोबाइलिया वार्तालाप
जिस में नहीं होती
कोई बेताबी
इंतजार भी होता है क्षणिक
जो मिट ही जाता है
अनचाही रिंगटोन के साथ
अब तो
काल का इंतज़ार
करता है बोर
बेकरारी लगती है बेकार
उतरती ही नहीं
खुमारी प्रीत की
बिल जता देता है
बहुत हुआ
इतनी बहुत है खुशी !
फ़ेसबुक पर है
चाहे-अनचाहे दोस्तों की
अथाह भीड़
कौन समझे
किसी की पीड़
दो-चार नहीं
सैकड़ों रहते हैं कतार में
हर दिन
जुड़ते-घटते भी जाते हैं
मगर घटते नहीं
दिल-ओ-दिमाग में पसरे दर्द ।
लाईक-कमेण्ट करते -करते
याद भी नहीं रख पाते
कब क्या लिखा
याद आते हैं
बचपन के दोस्त
जो समझते थे अनकही
जानते थे गलत सही
जो एक सा रोया करते
एक सा हँसा करते
हमारे और अपने
दुख-सुख में
हमेशा हमारे साथ ।
शादी की तैयारियाँ
महीनों चलतीं
लगन-बान-टीका
गीतों की महफ़िल सजती
रातीजोगा होता
उबटन-मेंहदी और हल्दी
पंगत-संगत में होती
साँझे चूल्हे पकती प्रीत ।
अब
विवाह होते ठेकों पर
गीत-संगीत
भोजन-कलेवा ठेकों पर
ना जुड़ते रिश्ते
ना जुड़ते दिल
बनावटी हँसी
गलों में डाल बनावटी मालाएँ
मिल लेते हैं गले
फ़िर ये चले ओर वो चले ।
देर रात
कलम लिए हाथ में
सोचती हूँ मैं
अब लिखूं क्या
इस जीवन का
जिस में तैर रही है
चारों और संवेदनहीनता
बदलते समय के साथ
कितनी बदल गई है ज़िन्दगी
वो तत्व अब कहाँ हैं
जीवन में जो भरते थे रस
लोग उनको रहे हैं तरस ।
सुशीला श्योराण
==========
अभावों में था
सब कुछ
कुछ न होते हुए भी
उमंग थी
हास भी और उल्लास भी
जो झलकता था पासंग ।
अब सब कुछ है
बस हंसी नहीं है
जीवन में और होठों पर
न मन में उमंग
न चेहरे पर हंसी
न क्रियाओं में उल्लास !
ज़िन्दगी है दौड़ती हुई
दौड़ते जा रहे हैं हम
चाहे-अनचाहे
छोटी-छोटी खुशियाँ
अपने-सपने
सब कुछ पीछे छोड़ते
रेल की तरह
एक ही दिशा में !
मिठाई- नए कपड़े
त्यौहार पर ही आते
खूब खींचतान के बाद
जिन्हें पा कर
हो ही जाती थी बाग-बाग
मानो खुल गए हों भाग
वह खुशी
वह मिठास
महीनों बिसुरती नहीं थी
अब जब आते ही रहते हैं
इशारों पर
परिधान और मिठाईयाँ
मगर अब कहाँ वह मिठास
इन मिठाइयों में
कहाँ वह उमंग-ओ-हुलास
मैचिंग वाली ड्रैस में
जो था
पट्टेदर पजामे
और
पोपलीन-फ़ुल्लालेण वाले झबले में !
डाकिये की आवाज सुन
खिल ही जाता था
अम्मां का चेहरा
उन के संग
घर भर में
कितने चेहरे खिल जाते
जब पढी़ जाती आँगन में
दूर-दिसावर से आई
बापू की प्रीत रची पाती
उस प्यारी पाती को
कितनी बार पढ़ जाते
हर अक्षर कुछ जोड़ जाता
बहुत गहरे पैठ जाता ।
अब तो
तुरत-फ़ुरत होती हैं बात
बात भी बेबात
मोबाइलिया वार्तालाप
जिस में नहीं होती
कोई बेताबी
इंतजार भी होता है क्षणिक
जो मिट ही जाता है
अनचाही रिंगटोन के साथ
अब तो
काल का इंतज़ार
करता है बोर
बेकरारी लगती है बेकार
उतरती ही नहीं
खुमारी प्रीत की
बिल जता देता है
बहुत हुआ
इतनी बहुत है खुशी !
फ़ेसबुक पर है
चाहे-अनचाहे दोस्तों की
अथाह भीड़
कौन समझे
किसी की पीड़
दो-चार नहीं
सैकड़ों रहते हैं कतार में
हर दिन
जुड़ते-घटते भी जाते हैं
मगर घटते नहीं
दिल-ओ-दिमाग में पसरे दर्द ।
लाईक-कमेण्ट करते -करते
याद भी नहीं रख पाते
कब क्या लिखा
याद आते हैं
बचपन के दोस्त
जो समझते थे अनकही
जानते थे गलत सही
जो एक सा रोया करते
एक सा हँसा करते
हमारे और अपने
दुख-सुख में
हमेशा हमारे साथ ।
शादी की तैयारियाँ
महीनों चलतीं
लगन-बान-टीका
गीतों की महफ़िल सजती
रातीजोगा होता
उबटन-मेंहदी और हल्दी
पंगत-संगत में होती
साँझे चूल्हे पकती प्रीत ।
अब
विवाह होते ठेकों पर
गीत-संगीत
भोजन-कलेवा ठेकों पर
ना जुड़ते रिश्ते
ना जुड़ते दिल
बनावटी हँसी
गलों में डाल बनावटी मालाएँ
मिल लेते हैं गले
फ़िर ये चले ओर वो चले ।
देर रात
कलम लिए हाथ में
सोचती हूँ मैं
अब लिखूं क्या
इस जीवन का
जिस में तैर रही है
चारों और संवेदनहीनता
बदलते समय के साथ
कितनी बदल गई है ज़िन्दगी
वो तत्व अब कहाँ हैं
जीवन में जो भरते थे रस
लोग उनको रहे हैं तरस ।
सुशीला श्योराण
समय के बदलते रंग को खूबसूरती के साथ आपने लिख दिया है.
ReplyDeleteडाकिये की आवाज सुन
ReplyDeleteखिल ही जाता था
अम्मां का चेहरा
उन के संग
घर भर में
कितने चेहरे खिल जाते
जब पढी़ जाती आँगन में
दूर-दिसावर से आई
बापू की प्रीत रची पाती
उस प्यारी पाती को
कितनी बार पढ़ जाते
हर अक्षर कुछ जोड़ जाता
बहुत गहरे पैठ जाता ।....
kitna sabkuch badal gaya hai tabhi to
देर रात
कलम लिए हाथ में
सोचती हूँ मैं
अब लिखूं क्या
इस जीवन का
जिस में तैर रही है
चारों और संवेदनहीनता
बदलते समय के साथ
कितनी बदल गई है ज़िन्दगी
वो तत्व अब कहाँ हैं
जीवन में जो भरते थे रस
लोग उनको रहे हैं तरस ।
............ jane kahan gaye wo din !
वास्तविकता की छटा बिखेरती कविता।
ReplyDelete----
कल 14/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
अति सुन्दर , बधाई.
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें, आभारी होऊंगा .
भूषणजी, रश्मिजी, यशवंतजी और शुक्ला जी ! आप ब्लोग पर आये, मेरी रचना पढ़ी हार्दिक आभार ।
ReplyDeleteयूँ ही अपना स्नेह बनाए रखें !
धन्यवाद आप "बदल गई ज़िन्दगी" को "नयी पुरानी हलचल" पर लिंक कर रहे हैं । इस मंच पर सभी की रचनाएँ और हल्चल पढ़ना एक सुखद अनुभव होता है ।
bahut bahut khoobsurat kavita hai..kitna achcha chitran .. kal aur aaj ka.. kitna kuch chhot gaya is bhaag doud mein..
ReplyDeleteना जुड़ते रिश्ते
ReplyDeleteना जुड़ते दिल
बनावटी हँसी
गलों में डाल बनावटी मालाएँ
मिल लेते हैं गले
फ़िर ये चले ओर वो चले ।
बदलती आबो-हवा और बदलते हालात का सुन्दर चित्रण किया आपने अपनी कविता के ज़रिये,सुशीला जी.
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteक्या कहने
Superb writing !!!
ReplyDeleteawesome expressions n the way u narrated the whole intricacies n complexities of life deserves a read.
Fantastic read :)
a very nice poem... just the daily life...
ReplyDeleteits true to some extents... but at some points the outlook could be different...
सच कहा है, आपने बदलते समय के साथ
ReplyDeleteकितनी बदल गई है ज़िन्दगी... हर बात बनावटी, हर चीज नकली है यहाँ...
आपकी रचना सुहाने अतीत में खीच रही है ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ..........
मेरे ब्लॉग पे आपका हार्दिक स्वागत है ..
याद आते हैं
ReplyDeleteबचपन के दोस्त
जो समझते थे अनकही
सुंदर!
चारों और संवेदनहीनता
ReplyDeleteबदलते समय के साथ
कितनी बदल गई है ज़िन्दगी....
सत्याभिव्यक्ति.... संवेदनशील रचना...
सादर...
समय के बदलते परिवेश को बखूबी लिखा है ..सच अब जीवन में मिठास का अभाव हो गया है ..
ReplyDeleteकृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .
अक्षरश: सही लिखा है आपने इस अभिव्यक्ति में ...बधाई के साथ शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteसारगर्भित रचना ..... अब तो भागदौड़ बची है....
ReplyDeleteवाह ! वाह !! वाह !!!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर शब्दों में गुंथी बेहतरीन/लाजवाब कविता !
"डाकिये की आवाज सुन
खिल ही जाता था
अम्मां का चेहरा
उन के संग
घर भर में
कितने चेहरे खिल जाते
जब पढी़ जाती आँगन में
दूर-दिसावर से आई
बापू की प्रीत रची पाती
उस प्यारी पाती को
कितनी बार पढ़ जाते
हर अक्षर कुछ जोड़ जाता
बहुत गहरे पैठ जाता ।...."
=========बधाई हो ! =========
सच में , कितनी बदल गई है ज़िंदगी । पर हम वहीं पहुँचते हैं जिस ओर हम चलते हैं । बहुत अच्छी रचना ।
ReplyDeleteअब लिखूं क्या
ReplyDeleteइस जीवन का
जिस में तैर रही है
चारों और संवेदनहीनता
बदलते समय के साथ
कितनी बदल गई है ज़िन्दगी
वो तत्व अब कहाँ हैं
जीवन में जो भरते थे रस
लोग उनको रहे हैं तरस । .....
आज के जीवन की झाँकी...,बहुत सुंदर.... त्रासदी,थकन, घुटन, पीड़ा....आँसू....बस ये ही सब फिर भी मुस्कराहट बनी रहे हर हाल में...शुभ कामनाएँ ..
सस्नेह
गीता पंडित
कई अर्थों को समेटे हुए एक अच्छी सारगर्भित रचना...............
ReplyDeleteचाहे-अनचाहे
ReplyDeleteछोटी-छोटी खुशियाँ
अपने-सपने
सब कुछ पीछे छोड़ते.bhut achchi mnbhavn prastuti.
Aaj k is ug k drshan ek kvita me hi krwa diye...laaa-jwab
ReplyDelete