मीता |
दुनिया में जितनी भीड़ है
मनवा में उतनी पीड़ है ..........
मर्म इसका, दर्द इसका, मैंने यहीं जाना
भीड़ में इन्सान हो सकता अकेला, माना !
कार्य-क्षेत्र की इन दरो-दीवारों के बीच
अपने से चेहरों, अजनबी भाषा के बीच !
मन हुआ नितांत अकेला
दिन सूने और दिल रीता !
जीवन के मरू में, तुम आई बन बरखा
खुशियों का झोंका, तुम ही तो लाई मीता !
मुरझाए-से दिल में, तुम ही लाई नव-उल्लास
कैसे मैं भूलूंगी , यह वक्त, यह हास-परिहास !
कानों में गूंजेगी जब, तुम्हारी मीठी खिलखिलाहट
दिल पर दोगी दस्तक, मन में तुम्हारी ही आहट !
बिन तुम्हारे कैसे कहूं , यहाँ होगी कितनी विरानगी
मेरे ही जीवन में आया ठहराव, बाकी वही रवानगी !
जाओ, निभाओ नेवी का दस्तूर, ओ मेरी मीता !
इस खुशनुमा झोंके की लेकिन, मुझे सदा ही प्रतीक्षा !
धन्यवाद सचिन !
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