मैं वसुधा
तुम्हारी धमनियों में
अन्न, जल, रस बन
सदियों से प्रवाहित हूँ
कभी फूल
कभी इत्र बन
सुवासित किया तुम्हारा प्रेम
पहाड़ों पर तुम्हारे प्रणय की साक्षी
औषधि से दिया आरोग्य
सींचती रही
पोसती रही
मैं जीवनदायिनी
निस्वार्थ
आनंदित ।
तुम मनुष्य
तुम्हारा स्वार्थ
तुम्हारी क्षुधा
नोचती रही मुझे
किए पहाड़ निर्वसन
कितने ही बाँधों में
बाँध दिया मेरा जीवन-प्रवाह
मेरे तन को दिए असंख्य घाव
किया रूप को कुरूप ।
तुम्हारा ईश्वर
कब तक मूक रह
देखता तुम्हारी कृतघ्नता
जीवनदायिनी के साथ
तुम्हारा छल, घात
चुक गया धैर्य
मिला प्रतिदान
तुम्हारे घात का
प्रतिघात ।
न ईश्वर सोया
न मैं हुई विध्वसंक
मत डाल हमारे कंधों पर
अपने पाप का बोझ
लालच में लंपट हो
जिस विनाश-मार्ग पर चल पड़ा था
उसकी परिणति
और क्या होती ?
- शील
चित्र : साभार गूगल