वीथी

हमारी भावनाएँ शब्दों में ढल कविता का रूप ले लेती हैं।अपनी कविताओं के माध्यम से मैंने अपनी भावनाओं, अपने अहसासों और अपनी विचार-धारा को अभिव्यक्ति दी है| वीथी में आपका स्वागत है |

Thursday, 3 October 2013

श्रद्धांजलि - कहीं तो दिख



टिमटिमाते असंख्य तारों बीच
ढूँढ रही हूँ धुंधला-सा एक तारा
जो छिप रहा होगा सबसे पीछे
ज़रूर माँ होगी वो
कहाँ छोड़ी होगी आदत
गूदड़े-से पैरहन में
लुकती-छिपती
भीड़ से दूर
तड़क-भड़क कभी नहीं सुहाई उसे
सुहाग के नाम पर बस लाख़ का चूड़ा
न जाने क्यों चिड़ती थी माँ
सिंगार के नाम पर बनावट से
बनावट किसी भी चीज़ में कब भायी उसे
रूचता रहा जो भी था
सादा, खालिस, शुद्ध ।

सितारों की चमक में
क्या चैन से रह पाती हो माँ
या खोजती हो बदली की ओट
या फिर सप्‍तऋषि के परकोटे में
पा लिए हैं अपने ठाकुर, बालाजी
क्या कुछ पखेरू भी हैं वहाँ
जो चुन लें दाना तेरे हाथों से
और तृप्‍ति से आरम्भ हो दिन तेरा
क्या तेरी आँखें अब भी 
देखती हैं
काले कुत्ते की राह
कि एक रोटी वह भी खा जाए
या तेरे दान-धर्म ने
व्रत-उपवास ने
ठाकुर, बालाजी ने
कर दिया है तुझे मुक्त
जन्म-मृत्यु के बंधन से

कह न माँ
कभी तो दिख मुझे
मेरी डबडबाई आँखें
क्यों नहीं दिखतीं तुझे
बहुत नरम दिल था न तेरा
सपने में ही दिख माँ
कहीं तो दिख
कभी तो दिख....