अनगढ़
एक आकार
एक पहचान
पाने को आतुर
पा कुम्हार का
स्नेहिल स्पर्श
हुई समर्पित
ढली उत्कृष्ट प्रतिमा
में
मृत्तिका अनुगृहीत
कुम्हार प्रफ़ुल्लित
जग मोहित ।
बोली मृत्तिका -
मैं, मैं कहाँ
जैसे ढाला, ढली हूँ
कुम्हार की प्रतिभा
उसी की कृति हूँ ।
बोला कुम्हार -
न होती तुम गुणग्राही
तो मेरी प्रतिभा
फिरती मारी-मारी
मेरी लगन, मेरा सृजन
मैं जो तुममें ढला
हूँ
लोच थी तुम्हारी
मेरे स्पर्श को
अप्रतिम कर गई
आज तुम पहचान मेरी
इससे बड़ी
और क्या तुष्टि मेरी
!
- शील