अनगढ़
एक आकार
एक पहचान
पाने को आतुर
पा कुम्हार का
स्नेहिल स्पर्श
हुई समर्पित
ढली उत्कृष्ट प्रतिमा
में
मृत्तिका अनुगृहीत
कुम्हार प्रफ़ुल्लित
जग मोहित ।
बोली मृत्तिका -
मैं, मैं कहाँ
जैसे ढाला, ढली हूँ
कुम्हार की प्रतिभा
उसी की कृति हूँ ।
बोला कुम्हार -
न होती तुम गुणग्राही
तो मेरी प्रतिभा
फिरती मारी-मारी
मेरी लगन, मेरा सृजन
मैं जो तुममें ढला
हूँ
लोच थी तुम्हारी
मेरे स्पर्श को
अप्रतिम कर गई
आज तुम पहचान मेरी
इससे बड़ी
और क्या तुष्टि मेरी
!
- शील
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
गुरूजनों को नमन करते हुए..शिक्षक दिवस की शुभकामनाएँ।
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (06-09-2013) के सुबह सुबह तुम जागती हो: चर्चा मंच 1361 ....शुक्रवारीय अंक.... में मयंक का कोना पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपको नमन और ह्रदय से आभार ।
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteकृपया आप यहाँ भी पधारें और अपने विचार रखे धर्म गुरुओं का अधर्म की ओर कदम ..... - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः13
आभार दर्शन जी ।
Delete,बहुत सुन्दर
ReplyDeletelatest post: सब्सिडी बनाम टैक्स कन्सेसन !
ReplyDeleteआभात तुषार जी ।
तहे दिल से शुक्रिया अरूण ।
ReplyDeleteधन्यवाद कालीप्रसाद जी !
ReplyDeleteकमाल की रचना
ReplyDeleteसुन्दर गुरु शिष्य सम्बन्ध .....नमन वंदन !
ReplyDeleteदोनों का ही महत्त्व है ... गुरु का मार्ग ओर विद्यार्थी का ग्रहण करना ... दोनों ही जरूरी हैं शीर्ष तक जाने के लिए ...
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