सुन कुदरत
पा ली क्या
इंसानी फ़ितरत !
रूत बसंत
सावन की फ़ुहार
हाड़ गलाए
पौष-सी बयार
भाग ली धूप
ओलों की बौछार
पीली सरसों
करे मलाल
दहकते टेसू
हुए हलाल।
कहे प्रकृति -
सुन मानव !
सब तेरी करतूत
दिया प्रदूषण
रोग भीषण
रूग्ण मेरी काया
कैसे चलूँ
सधी चाल
किया तूने बेहाल।
अब भी संभल
कर जतन
उगा दरख़्त
कानून सख़्त
गंगा दूषित
यमुना गंदली
मैं ऊसांसी
हुई रूआंसी
कैसी ये आफ़त
जी की साँसत
किया हताहत
दे कुछ राहत
अब भी संभल
सँवार कल।
- शील
चित्र : साभार गूगल
बढिया लिखा है. क़ुदरत का दर्द भी तो सामने आना ही चाहिए.
ReplyDeleteह्रदय से आभार मोहन श्रोत्रिय सर ! आपकी प्रतिक्रिया मुझमें नई ऊर्जा का संचार करती है। स्नेह और आशीर्वाद बनाए रखें।
Deleteबहुत खूब ...कुदरत दर्द जो दिखता नहीं है पर उसकी तकलीफ सबको भुगतनी पड़ती है
ReplyDeleteप्रकृति की पीड़ा को आपकी संवेदना ने अपनाया। आभार अंजू जी ।
Deleteकुदरत क्या सुने....
ReplyDeleteहमने ही बिगाड़ कर रक्खी है उससे...
बहुत बढ़िया रचना सुशीला दी...
अनु
बहुत अर्थपूर्ण, भावपूर्ण रचना...सुशीला जी!
ReplyDelete~सादर!!!
सटीक ...सार्थक ...सुन्दर...!
ReplyDeleteअच्छी कविता. सधी और संतुलित अभिव्यक्ति, सुलझा हुआ सोच. बधाई!
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