वीथी

हमारी भावनाएँ शब्दों में ढल कविता का रूप ले लेती हैं।अपनी कविताओं के माध्यम से मैंने अपनी भावनाओं, अपने अहसासों और अपनी विचार-धारा को अभिव्यक्ति दी है| वीथी में आपका स्वागत है |

Sunday, 17 February 2013

सुन कुदरत



सुन कुदरत
पा ली क्या
इंसानी फ़ितरत !
रूत बसंत
सावन की फ़ुहार
हाड़ गलाए
पौष-सी बयार
भाग ली धूप
ओलों की बौछार
पीली सरसों
करे मलाल
दहकते टेसू
हुए हलाल।

कहे प्रकृति -
सुन मानव !
सब तेरी करतूत
दिया प्रदूषण
रोग भीषण
रूग्ण मेरी काया
कैसे चलूँ
सधी चाल

किया
 तूने बेहाल।

अब भी संभल
कर जतन
उगा दरख़्त
कानून सख़्त
गंगा दूषित
यमुना गंदली
मैं ऊसांसी
हुई रूआंसी
कैसी ये आफ़त
जी की साँसत
किया हताहत
दे कुछ राहत
अब भी संभल
सँवार कल।

- शील


चित्र : साभार गूगल


8 comments:

  1. बढिया लिखा है. क़ुदरत का दर्द भी तो सामने आना ही चाहिए.

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    1. ह्रदय से आभार मोहन श्रोत्रिय सर ! आपकी प्रतिक्रिया मुझमें नई ऊर्जा का संचार करती है। स्नेह और आशीर्वाद बनाए रखें।

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  2. बहुत खूब ...कुदरत दर्द जो दिखता नहीं है पर उसकी तकलीफ सबको भुगतनी पड़ती है

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    1. प्रकृति की पीड़ा को आपकी संवेदना ने अपनाया। आभार अंजू जी ।

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  3. कुदरत क्या सुने....
    हमने ही बिगाड़ कर रक्खी है उससे...
    बहुत बढ़िया रचना सुशीला दी...

    अनु

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  4. बहुत अर्थपूर्ण, भावपूर्ण रचना...सुशीला जी!
    ~सादर!!!

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  5. सटीक ...सार्थक ...सुन्दर...!

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  6. अच्छी कविता. सधी और संतुलित अभिव्यक्ति, सुलझा हुआ सोच. बधाई!

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