अनुभूति.......जो अभिव्यक्ति में ढली.....कुछ
प्रतीकों के साथ......
मँहगाई से बुझता
ज़िंदगी से जूझता
थकान से हलकान
मुँह पे पलास्टिक मुस्कान
परेशां हर इंसान
टोहता है थोड़ी-सी हँसी
पल-भर की थोड़ी-सी ख़ुशी ।
बोले फ़िसद्दी लाल
-
आ ज़िंदगी तुझको हँसाएँ
मुश्किल ज़रूर है
एक सच्ची कोशिश कर दिखलाएँ
चल, कुछ हास्य कविताएँ सुनवाएँ !
फ़िसद्दी ने कहा उदासी से -
अब तो छोड़ मेरा पल्ला
हास्य का हो रहा है हल्ला ।
उदासी के चेहरे पर खिल उठी मुस्कान
बोली -
तू बड़ा है नादान !
फ़िसद्दी बोला – क्या है तेरा मतलब ?
उदासी ने कहा- तू नहीं समझेगा अहमक ।
फ़िसद्दी ने की बड़ी मनुहार
चल; बता भी दे यार !
क्यों कहती तू मुझको मूरख
चार-चार डिग्रियों वाला हूँ
देखती नहीं अफ़सर आला हूँ ।
उदासी फिर खिलखिलाई
फ़िसद्दी की कुछ और खिल्ली उड़ाई !
अब तो चढ़ गया उसका ताप
उदासी बोली – माफ़ करो बाप
पहले हास्य-सम्मेलन हो आओ
संभव है अपने उत्तर पा जाओ
भिनभिनाता फ़िसद्दी गया कवि-दरबार
श्रोता दिखे केवल चार
मंच पर सज्जित राज-दरबार
कोई सँभाल रहा मुकुट-तलवार
तोंद गिर रही किसी की बार-बार
लगा – वह रास्ता भटक गया है
कवि-सम्मेलन नहीं नौटंकी पहुँच गया है
फिर से पढ़ा बैनर आँखें मलते-मलते
चश्मे को तनिक और ऊँची नाक पर रखते
अक्षर भी लगे उसे चिढ़ाने -
काहे को फ़िरंगी भेस बनाया है
कभी टाई, रेबैन ने हिन्दी पढ़ना सिखाया है ?
अक्षरों की इतनी हिमाकत ?
साहब की सरेआम फ़जीहत
फ़िसद्दी के उखड़ते देख तेवर
सरपट दौड़े आए वॉलिन्टियर
भाँप के तुरंत सारी बात
आसन दिया उन्हें भी खास
भरपूर निपोरी खींसे
आँखों को मीचे-मीचे ।
फ़िसद्दी ने
सर झटक लगाया कविता में ध्यान
कई सवालों ने किया उन्हें परेशान
हास्य-रस में क्यों तलवार चली आई
दहशत का यहाँ क्या काम है भाई ?
असली साथ क्यों नकली पेट
क्यों चढ़ी कविता नौटंकी की भेंट
क्यों कवि आज भाँड होने लगे हैं
पतियों को क्यों साँड कहने लगे हैं ?
ताड़के फ़िसद्दी की सवालिया निगाह
ऑर्गनाईज़र ने दिखाई बाहर की राह
फ़िसद्दी भौंचक्के; कैसे ये कविगण
भगा रहे आप ही श्रोतागण
उनकी मति ने दे दिया जवाब
तभी आई कहीं से एक आवाज़
इतना भी मत चौंकिए जनाब
ये कॉम्पीटीशन है समझे नहीं आप
चेस्ट नंबर की आँख में धूल झोंकने के हैं उपाय
ज़रा ख़्याल रखिएगा; निर्णायक को कैसे बताएँ
हास्य-रस का हो चाहे खून, तलवार जीतनी चाहिए
कविता चाहे बन जाए नौटंकी, तोंद जीतनी चाहिए।
ओह ! तो यह मामला है
जुगाड़, फ़िक्सिंग, गड़बड़झाला है।
लोभ ने कविता को भी भ्रष्ट कर डाला है
क्या सच के लिए कहीं बचा कोई आला है ?
रो दिया मन; आँखें नम
चले थे हँसने; बढ़ गया ग़म
सहसा उदासी आ खड़ी हुई सामने
लगी प्रेम से उन्हें समझाने -
भैया खुश रहने के दो ही हैं रास्ते
या तो भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाओ
या जनक की तरह देह से विदेह हो जाओ
इतना कह उदासी उनमें समा गई
नहीं जानती कितना उन्हें सहमा गई
वे उदासी की बातें गुनने लगे हैं
फ़िसद्दी कुछ-कुछ योगी होने लगे हैं
फ़िसद्दी कुछ-कुछ योगी होने लगे हैं ।
- शील
आ ज़िंदगी तुझको हँसाएँ
मुश्किल ज़रूर है
एक सच्ची कोशिश कर दिखलाएँ
चल, कुछ हास्य कविताएँ सुनवाएँ !
फ़िसद्दी ने कहा उदासी से -
अब तो छोड़ मेरा पल्ला
हास्य का हो रहा है हल्ला ।
उदासी के चेहरे पर खिल उठी मुस्कान
बोली -
तू बड़ा है नादान !
फ़िसद्दी बोला – क्या है तेरा मतलब ?
उदासी ने कहा- तू नहीं समझेगा अहमक ।
फ़िसद्दी ने की बड़ी मनुहार
चल; बता भी दे यार !
क्यों कहती तू मुझको मूरख
चार-चार डिग्रियों वाला हूँ
देखती नहीं अफ़सर आला हूँ ।
उदासी फिर खिलखिलाई
फ़िसद्दी की कुछ और खिल्ली उड़ाई !
अब तो चढ़ गया उसका ताप
उदासी बोली – माफ़ करो बाप
पहले हास्य-सम्मेलन हो आओ
संभव है अपने उत्तर पा जाओ
भिनभिनाता फ़िसद्दी गया कवि-दरबार
श्रोता दिखे केवल चार
मंच पर सज्जित राज-दरबार
कोई सँभाल रहा मुकुट-तलवार
तोंद गिर रही किसी की बार-बार
लगा – वह रास्ता भटक गया है
कवि-सम्मेलन नहीं नौटंकी पहुँच गया है
फिर से पढ़ा बैनर आँखें मलते-मलते
चश्मे को तनिक और ऊँची नाक पर रखते
अक्षर भी लगे उसे चिढ़ाने -
काहे को फ़िरंगी भेस बनाया है
कभी टाई, रेबैन ने हिन्दी पढ़ना सिखाया है ?
अक्षरों की इतनी हिमाकत ?
साहब की सरेआम फ़जीहत
फ़िसद्दी के उखड़ते देख तेवर
सरपट दौड़े आए वॉलिन्टियर
भाँप के तुरंत सारी बात
आसन दिया उन्हें भी खास
भरपूर निपोरी खींसे
आँखों को मीचे-मीचे ।
फ़िसद्दी ने
सर झटक लगाया कविता में ध्यान
कई सवालों ने किया उन्हें परेशान
हास्य-रस में क्यों तलवार चली आई
दहशत का यहाँ क्या काम है भाई ?
असली साथ क्यों नकली पेट
क्यों चढ़ी कविता नौटंकी की भेंट
क्यों कवि आज भाँड होने लगे हैं
पतियों को क्यों साँड कहने लगे हैं ?
ताड़के फ़िसद्दी की सवालिया निगाह
ऑर्गनाईज़र ने दिखाई बाहर की राह
फ़िसद्दी भौंचक्के; कैसे ये कविगण
भगा रहे आप ही श्रोतागण
उनकी मति ने दे दिया जवाब
तभी आई कहीं से एक आवाज़
इतना भी मत चौंकिए जनाब
ये कॉम्पीटीशन है समझे नहीं आप
चेस्ट नंबर की आँख में धूल झोंकने के हैं उपाय
ज़रा ख़्याल रखिएगा; निर्णायक को कैसे बताएँ
हास्य-रस का हो चाहे खून, तलवार जीतनी चाहिए
कविता चाहे बन जाए नौटंकी, तोंद जीतनी चाहिए।
ओह ! तो यह मामला है
जुगाड़, फ़िक्सिंग, गड़बड़झाला है।
लोभ ने कविता को भी भ्रष्ट कर डाला है
क्या सच के लिए कहीं बचा कोई आला है ?
रो दिया मन; आँखें नम
चले थे हँसने; बढ़ गया ग़म
सहसा उदासी आ खड़ी हुई सामने
लगी प्रेम से उन्हें समझाने -
भैया खुश रहने के दो ही हैं रास्ते
या तो भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाओ
या जनक की तरह देह से विदेह हो जाओ
इतना कह उदासी उनमें समा गई
नहीं जानती कितना उन्हें सहमा गई
वे उदासी की बातें गुनने लगे हैं
फ़िसद्दी कुछ-कुछ योगी होने लगे हैं
फ़िसद्दी कुछ-कुछ योगी होने लगे हैं ।
- शील