वीथी

हमारी भावनाएँ शब्दों में ढल कविता का रूप ले लेती हैं।अपनी कविताओं के माध्यम से मैंने अपनी भावनाओं, अपने अहसासों और अपनी विचार-धारा को अभिव्यक्ति दी है| वीथी में आपका स्वागत है |

Saturday, 31 March 2012

कस्तूरी प्रीत !




कस्तूरी प्रीत !


प्रीत के बिरवे

अंकुरित, पल्लवित

पुष्पित, सुरभित

गमके, महके

दूर से लहके

जिसके लिए खिले

रस, गंध को 

नित वह तरसे

कस्तूरी प्रीत !



मन एकाकी

दूर साथी

रहे जहाँ

मन वहाँ

न कोई चिठिया

न कोई तार

कैसे गलबहियाँ हार

मैं तो गई हार

अनूठी ये रीत

कस्तूरी प्रीत !


-सुशीला शिवराण



चित्र : आभार गूगल

Friday, 23 March 2012

मेरा अज़ीज़




मेरा अज़ीज़ जो मेरे पास ठहर जाता है
ये कायनात हर लमहा वहीं ठहर जाता है

खुद भी कभी अपना वज़ूद हम पे लुटा के देख
क्यूँ दो कदम चल तेरा यकीन ठहर जाता है


बेपनाह की है मुहब्बत
उससे , रहे बावफ़ा
न जाने क्यूँ वो हम पे इतना कहर ढाता है

जो ज़ख्म 
उसने दिए,बने हैं नासूर ज़िंदगी के
महफ़िल में सबसे मासूम वो नज़र आता है


खुद से वादा किया न करेंगे दीदार तेरा
फ़िर क्यूँ तेरा ख्याल मुझे हर पहर आता है


-
सुशीला शिवरा

चित्र - साभार google

Saturday, 17 March 2012

सड़क पर भविष्य



सड़क पर भविष्य


कचरे का ढेर


ढेर पर बच्चे

बीनते जूठन

नज़रें चुरा निगलते

देखा है अक्सर इन में

भविष्य भारत का मैंने !




भारत का वर्तमान

दौड़ता है सरपट

फ़ेरारियो में

बढ़ जाता है आगे 

लाद कर जिम्मेदारियाँ

ज्ञात-अज्ञात

रोकती हैं लाल बत्तियाँ

चौक-चौराहे, गली मुहाने

आ ही जाती हैं याचनाएँ

पसर जाते हैं हाथ

खीजता-सा वर्तमान

चढ़ा लेता है शीशे ऊपर

ऊपर-और ऊपर

मानो ढक दिया है उसने

भविष्य भारत का !



वर्तमान देखता है

मनचाही तस्वीर-

खटते मासूम बच्चे

पत्थर तोड़ते कोमल हाथ

बोझा ढोते कमज़ोर कंधे

चूड़ी-बीड़ी के कारखानों में

कुम्हलाया मासूम बचपन

विकासशील विशाल अट्टालिकाएँ

बेखौफ़ पालती हैं

बंधुआ मज़दूर

बीन कर बचपन !



होते ही हरी बत्ती

निकल जाता है

दौड़ता वर्तमान

रह जाता है निपट अकेला

सड़क पर भविष्य

खोल कर आँखें

पूछता है उसका बचपन

कब दोगे मुझे

मेरी आज़ादी

कल मेरा भी होगा

खुला आसमान

बताती थी दादी !


-सुशीला शिवराण


चित्र - साभार google




Thursday, 8 March 2012

स्त्री होकर सवाल करती है!





अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस पर -




स्त्री होकर सवाल करती है!



ओ दम्भी पुरूष !
सदियों से छला है तुमने
कभी देवी-गृहलक्ष्मी
अन्नपूर्णा-अर्धांगिनी
ह्रदय-स्वामिनी- भामिनी
क्या-क्या नहीं पुकारा मुझे?
पुलकित-आनंदित
बहलती रही मैं
तुम्हारे बहलावों-छलाओं से !


देवी बनकर लुटाती रही
तुम पर सर्वस्व अपना
कहाँ की मैंने अपेक्षा
तुम्हारी रही सदैव
प्रस्तर-प्रतिमा
आंगन तुम्हारे
ना कोई आशा
ना अभिलाषा
पीती रही दर्द के प्याले
पिघलती रही पल-पल
जलती रही तिल-तिल
सिमटती, मिटती रही !


पुत्री बन  बनी अनुगामिनी
प्रेयसी थी समर्पिता
पहन मंगलसूत्र
नाम-गोत्र-पहचान
किए न्यौछावर खुशी-खुशी
मातृत्व-सुख से हुई
गर्वित-निहाल
पाला उनको
जो थे अंशी
तेरे-मेरे लाल ।


आज खोजती हूँ खुद को
पूछती हूँ खुद से
कौन थे तुम
जो आए अचानक
लील गए सपने मेरे
बो दिए सपने अपने
भीतर मेरे-बहुत गहरे
पूछती हूं पा एकांत खुद से
कर पाईं क्या न्याय स्वयं से तुम
मेरे भीतर उठते इन सवालों से
सचमुच बहुत डरती हूँ
मुझ तक सीमित हैं जब तक
सब ठीक है-सुंदर है तब तक
हो जाएंगे जब कभी मुखरित
बहुत सताएंगे सवाल तुमको
फ़िर तुम चिल्लाओगे
स्त्री होकर सवाल करती है !
ये क्या बवाल करती है?


सोच लो !
क्या तुम तैयार हो
मचते बवाल के लिए
उठते सवाल के लिए ?


चित्र : आभार - गूगल

Wednesday, 7 March 2012

होली - कल और आज




आया फाग 
लाया मन अनुरा
होली के वे चित्र
बन गए हैं जीवन मित्र
फिर आ-आ गले मिलतेहैं
अतीत को जीवंत कर देते हैं !


नयनों में घूमे वही चौपाल
सजता हर रात नया स्वांग
होती महीने भर की होली
सखियों संग हँसी-ठिठोली
ढप और चंग की थाप 
झूम उठते दिल और पाँव 
जुटता सारा गाँव
होते सुख-दुख सांझे
सबको बाँधे प्रीत के धागे ! 

महानगरों के कंकरीट जंगल में
खो गये होली के रंग
घुटती हुई भांग कहाँ दिखती है 
गाती-बजाती टोलियाँ कहाँ दिखती हैं 
कहाँ छनकते हैं रून-झुन घुंघरू ?

सोसाइटी पार्क में  
सज जाती हैं मेजें
तश्तरियाँ,पकौड़े,चाय/कॉफ़ी,शीतल पेय
लग जाता है म्यूज़िक सिस्टम
भीमकाय स्पीकर
फ़िल्मी गीत
बच्चों का हुड़दंग
बालकनियों से झाँकती आँखें
छितरे-छितरे से लोग
हाथों में अबीर-गुलाल के पैकेट
ढूँढते हैं परिचित चेहरे
उल्लास, उत्साह पर दुविधा की चादर
कौन करे रंगने की पहल
दुविधा में ही बढ़ जाते कदम !

कहाँ वो ज़ोर-जबर्दस्ती
वो लुकना-छिपना
वो ढूँढना
रंगो से नहला देना
खिल-खिल गले मिलना
ढोल पर झूम उठना
उल्लास पर काबिज हुई सौम्यता 
मस्ती में भी संयम और गरिमा !


नहीं चढ़्ती कड़ाही
शकरपारे और गुजिया
नहीं बनती घर पर 
हो जाती है होम डिलीवरी
मीठा तो है
माँ के हाथ की मिठास कहाँ
त्योहार तो है
वो उमंग, वो उल्लास कहाँ
अब उत्सव भी जैसे
परंपरा को जीते जाने की
एक औपचारिकता भर रह गए हैं
अंतर्जाल की दुनिया के
ब्लॉग, फ़ेसबुक, ट्‍वीटर पर
सिमट कर रह गए हैं ! 

-सुशीला शिवराण 

Sunday, 4 March 2012

सँवरी है ज़िन्दगी............




सँवरी है ज़िन्दगी खुदा की इनायत है

अल्लाह की रहमत, उसकी करामात है 


नहीं पड़ते पाँव आजकल ज़मीं पे मेरे
ज़िंदगी एक ख्वाब हसीं, तेरी करामात है

रोशन है मेरे घर का हर कोना
मुट्‍ठी में मेरी आज़ कायनात है

खुशियों ने किया है घर मेरे बसेरा
ना मैं परेशां न कोई सवालात हैं

उदासियाँमायूसियाँ गुज़री बातें हैं
आपके पहलू में प्यार भरे ज़ज़्बात हैं

-सुशीला श्योराण