बाबा की लाड़ली
बात-बात पर रूठती
खेल-खिलौने
मिठाई, गोल-गप्पे
कभी नई ड्रेस
बनते रूठने के बहाने
जिनकी आड़ में
पा ही लेती वह
ढेर-सा प्यार
और खूब मनुहार!
आज वह सुघड़ तरूणी
मनाती है सबको
कभी रूठे दिनों
रूठी रातों को
रूठे मीत
रूठे नातों को
कभी रूठ जाता नसीब
तो नयन छलछला उठते
भूले मंज़र तैर उठते
रूठने के ज़िक्र से
मन खोया-खोया हो जाता है
उसके बचपन का अस्त्र
उसकी गर्दन पर तन जाता है
घुटती हैं साँसें
कहती हैं आहें
कोई रूठे ना किसी से !
-सुशीला शिवराण
चित्र : साभार गूगल
घुटती हैं साँसें
ReplyDeleteकहती हैं आहें
कोई रूठे ना किसी से !
-बहुत गहन!!
घुटती हैं साँसें
ReplyDeleteकहती हैं आहें
कोई रूठे ना किसी से !....सही कहा..गहन अभिव्यक्ति
उसके बचपन का अस्त्र
ReplyDeleteउसकी गर्दन पर तन जाता है
घुटती हैं साँसें
कहती हैं आहें
कोई रूठे ना किसी से !
बहुत मार्मिक प्रस्तुति . .कृपया यहाँ भी पधारें -
ram ram bhai
शनिवार, 30 जून 2012
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