बुदबुदे की तरह
भीतर से रीता
परिधि में कैद
तैर रहा है मन
अज्ञात दिशा की ओर!
एक तृषा
मृगतृष्णा
कस्तूरी की गंध
खींचे अपनी ओर
मन बावरा
बिन देखे
बिन जाने
किस भरोसे
अपना माने
और चाहे !
पथ के काँटे
निर्मम शूल
न होगी क्षमा
उसकी भूल
काफ़ी है
हल्की-सी चोट
मिटाने के लिए
उसका वज़ूद!
बखूबी जानता है
कि मिटने से ही
बुझेगी प्यास
अतृप्त सफ़र को
मिलेगा तृप्त विराम !
-सुशीला शिवराण
bahut hi sudnar bhav hai apki rachana me
ReplyDelete्कविता पसंद करने के लिए धन्यवाद।
Deletebahut hi khubsurat rachna...
ReplyDeleteSushila ji aapke blog ko dekhne ka 786 wa no.mera
सुरेश कुमार जी देर आए दुरूस्त आए बस अब बार-बार आते रहिए!
Deleteरचना आपको अच्छी लगी शुक्रिया।
गहरे भाव!! उम्दा!!
ReplyDeleteसलिल जी आपने उम्दा कह दिया तो लगा कि किसी परीक्षा में distinction से पास हो गई! हार्दिक आभार!
Deleteसुंदर भाव भरी रचना....
ReplyDeleteसादर।
आज तो आपने ट्रीट दे दी रचनाओं की एक से बढ़के एक ... . .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhaia
शनिवार, 30 जून 2012
दीर्घायु के लिए खाद्य :
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ज्यादा देर आन लाइन रहना बोले तो टेक्नो ब्रेन बर्न आउट
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