कह तो पुरुष !
पाता ही रहा
मुझसे
प्यार, हौंसला
टूटन के पलों में
डूबा मुझी में
मेरी बाँहों में
भुलाए ग़म जहाँ के
उतार फेंकी हताशा की केंचुली
मेरे प्रेम-सागर में
डूबा उतराया
ले के नया विश्वास
मेरे समर्पण में
पाया संबल
लेके मुझे पार्शव में
हुआ सदा गर्वित
उन मादक पलों की स्मृति
मैंने कोख में सहेज
अपने खूं से सींच
दिया तुम्हें अतुल्य उपहार
बसाया तुम्हारा घर-संसार
महकाया बगिया-सा
दिए तुम्हारे जीवन को अर्थ
फिर भी तू नाशुक्रा
मेरे हर त्याग को
कहता रहा अधिकार
करता रहा वंचित
मुझे मेरे ही हक से
अर्धांगिनी नहीं
कहा अबला
जिस स्तंभ पर टिकी गृहस्थी
कहा उसी को आश्रित
पुरुष है न!
तू ही गढ़ेगा परिभाषाएँ
जानता है
मानता नहीं
बनाए रखने को अपना अहं
कहता है
अबला, आश्रिता
मुझ सबला को !
-सुशीला शिवराण (श्योराण)
पाता ही रहा
मुझसे
प्यार, हौंसला
टूटन के पलों में
डूबा मुझी में
मेरी बाँहों में
भुलाए ग़म जहाँ के
उतार फेंकी हताशा की केंचुली
मेरे प्रेम-सागर में
डूबा उतराया
ले के नया विश्वास
मेरे समर्पण में
पाया संबल
लेके मुझे पार्शव में
हुआ सदा गर्वित
उन मादक पलों की स्मृति
मैंने कोख में सहेज
अपने खूं से सींच
दिया तुम्हें अतुल्य उपहार
बसाया तुम्हारा घर-संसार
महकाया बगिया-सा
दिए तुम्हारे जीवन को अर्थ
फिर भी तू नाशुक्रा
मेरे हर त्याग को
कहता रहा अधिकार
करता रहा वंचित
मुझे मेरे ही हक से
अर्धांगिनी नहीं
कहा अबला
जिस स्तंभ पर टिकी गृहस्थी
कहा उसी को आश्रित
पुरुष है न!
तू ही गढ़ेगा परिभाषाएँ
जानता है
मानता नहीं
बनाए रखने को अपना अहं
कहता है
अबला, आश्रिता
मुझ सबला को !
-सुशीला शिवराण (श्योराण)
बेहतरीन
ReplyDeleteसादर
शुक्रिया यशंवंत जी।
Deleteपुरुष हमेशा से स्त्री को अबला निसहाय बेचारी जैसे आभूषणों से सजाता आया है.....बहुत सुन्दर सटीक रचना..आभार..
ReplyDeleteयह रचना एक भारतीय नारी के उद्गार ही हैं। आभार महेश्वरी कनेरी जी।
Deleteएक सच बहुत बेबाकी से कहा ………बहुत खूब
ReplyDeleteकविता की भावना को महसुस करने के लिए शुक्रिया।
Deleteबहुत सशक्त रूप से आपने एकदम सटीक बात कह दी.....
ReplyDeleteजाने कब हमने सारे हक़ पुरुषों को दे डाले.....और अबला कहलाने लगे..
नमन आपकी लेखनी को.
अनु
आपकी प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभार अनु।
Delete'पुरुष है न!
ReplyDeleteतू ही गढ़ेगा परिभाषाएँ
जानता है
मानता नहीं
बनाए रखने को अपना अहं'
इन पंक्तियों में इस समाज का सत्य कहा है आपने. यह संघर्ष ज़ोर पकड़ रहा है. बहुत अच्छी कविता.
आप समाज की नब्ज को पहचानते हैं। हार्दिक आभार कविता को पसंद करने के लिए।
Deleteसत्य को कहती बहुत भावप्रवण रचना
ReplyDeleteकविता पसंद करने के लिए आभार संगीता जी।
Deleteबेहतरीन भावों को प्रस्तुत किया
ReplyDeleteकविता का संज्ञान लेने के लिए आभार रश्मि जी।
Deleteसशक्त सटीक सुन्दर भावपूर्ण रचना ,,,,सुशीला जी बधाई,,,,
ReplyDeleteRECENT POST ...: पांच सौ के नोट में.....
आपकी सूंदर प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभार धीरेन्द्र जी। आपको पढ़्ना एक सुखद अनुभव होता है जल्दी ही आपके ब्लॉग पर आऊँगी।
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