तुम आए
मरू में तपती रेत पर
बारिश बनकर
जी उठी हूँ
सौंधी-सौंधी
महक मन भर।
तुम्हारे प्रेम की फुहार में
भीग गया है मेरा तन-मन
लहराता आंचल
दौड़ रहा है मुझमें
तुम्हारा प्रेम परिमल !
बीज दिए हैं तुमने
कितने ही सपने, आशाएँ
कामनाएँ जग उठी हैं
खुली आँखों में !
हो गई हूँ एक नदी
तुम्हारे प्रेम में तरंगित
तुम्हारे ही आवेग में
उन्मादिनी-सी बह रही हूँ -
समा जाना चाहती हूँ
जिसकी अतल गहराइयों में मौन,
खुद को खोकर
चाहती हूँ होना एकाकार
और अभिन्नक तुम्हारे
प्रेम में सरसिज !
देखो ! चाँद भी मुस्कुरा रहा है
सोलह कलाओं को समेटे साथ
हमारे प्रेम का साक्षी
मानो दे रहा है सौगात
बरसा कर शुभ्र चाँदनी !
- शील
चित्र : साभार गूगल