- मेरी कलम से पिता जी के लिए - Happy Father's Day पापा !जिस पदचाप से
चौकन्नी हो जाती हवेली
जिस रौबीली आवाज़ से
सहम जातीं भीतें
दुबक जाते बच्चे
पसर जाती खामोशीसमय के कुएँ में
पैठता गया रौब
अब प्रतिध्वनि पर
नहीं ठहरता कुछ
चलता रहता है यंत्रवत
दैनिक कार्यकलाप। - ~~~~~~~~~~~~~~~~~
जब माँ थी
मालिक थे पिता
घर-बार-संसार
चलता मर्ज़ी से
माँ के जाते ही
मुँद गए किवाड़
अनाथ हुआ घर
आधे-अधूरे
हो गए पिता।-शील
वीथी
हमारी भावनाएँ शब्दों में ढल कविता का रूप ले लेती हैं।अपनी कविताओं के माध्यम से मैंने अपनी भावनाओं, अपने अहसासों और अपनी विचार-धारा को अभिव्यक्ति दी है| वीथी में आपका स्वागत है |
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Sunday, 16 June 2013
Sunday, 2 December 2012
क्षणिकाएँ
क्षणिकाएँ -
१)
मैं
चंदन हूँ
१)
मैं
चंदन हूँ
आग हूँ
सबने समझा राख
अंगार हूँ मैं
बर्फ़-सी शीतलता
लावे-सी दहक हूँ
फूल पर शबनम
एक महक हूँ मैं
सबने समझा पीर
एक शमशीर हूँ मैं !
२)
ये तन्हाइयाँ
२)
ये तन्हाइयाँ
ये तन्हाइयाँ
परेशानियाँ
दुश्वारियाँ
क्यूँ है गमनशीं
ए हमनशीं
क्या रूका है यहाँ
जो ये रूकेंगी
हो जाएँगी रूखसत
ज़रा पलक उठा के देख
मेरी आँखों में तुम्हें
उम्मीदें दिखेंगी......
३)
बैरन सुबह
बैरन सुबह
बैरन सुबह
कभी ना आए
मुँदी पलकें
पलकों में सजन
कभी ना जाए
४)
ये फ़ासले
४)
ये फ़ासले
ये फ़ासले
नापते हुए तुम
आओगे पास
करोगे सज़दे
छुपा लोगे मुझे
बाँहों के घेरे में
यकीं है मुझे
क्य़ूँकि मैंने
मेरे हमनवा
मुहब्बत नहीं
इबादत की है
५)
मैं और मेरी कलम !
५)
मैं और मेरी कलम !
कल्पना की उड़ान के बीच
विचारों को सहेजने-बाँधने के बीच
जो विचार खो जाते हैं
उन्हें पकड़ने की ऊहा-पोह में
अक्सर कहीं खो जाते हैं
मैं और मेरी कलम !
६)
६)
मेरे दोनों बेटों के लिए -
तुम्हीं मेरे चंदा
झिलमिल दो तारे
सूरज से दीप्यमान
नक्षत्र मेरे उजियारे
तुम्हीं बगिया के फूल
हरते जीवन के शूल
मेरी पाक़ दुआ
ख़ुदा का तुममें नूर
तुम्हीं मेरा गुरुर
७)
जब मन एक हों
तन मंदिर हो जाते हैं
आत्मिक हो प्रेम तो
शरीर शिवाले हो जाते हैं
- सुशीला श्योराण ‘शील’
तुम्हीं मेरा गुरुर
७)
जब मन एक हों
तन मंदिर हो जाते हैं
आत्मिक हो प्रेम तो
शरीर शिवाले हो जाते हैं
- सुशीला श्योराण ‘शील’
Sunday, 8 July 2012
Saturday, 26 May 2012
मैं, उम्मीदें
मैं
चंदन हूँ
आग हूँ
सबने समझा राख
अंगार हूँ
बर्फ़-सी शीतलता
लावे-सी दहक हूँ
फूल पर शबनम
एक महक हूँ
सबने समझा पीर
मैं शमशीर हूँ !
सबने समझा राख
अंगार हूँ
बर्फ़-सी शीतलता
लावे-सी दहक हूँ
फूल पर शबनम
एक महक हूँ
सबने समझा पीर
मैं शमशीर हूँ !
ये तन्हाइयाँ
परेशानियाँ
दुश्वारियाँ
क्यूँ है गमनशीं
ए हमनशीं
क्या रूका है यहाँ
जो ये रूकेंगी
हो जाएँगी रूखसत
ज़रा पलकें उठा के देख
मेरी आँखों में तुम्हें
उम्मीदें दिखेंगी......
-सुशीला शिवराण
चित्र : साभार गूगल
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