वीथी

हमारी भावनाएँ शब्दों में ढल कविता का रूप ले लेती हैं।अपनी कविताओं के माध्यम से मैंने अपनी भावनाओं, अपने अहसासों और अपनी विचार-धारा को अभिव्यक्ति दी है| वीथी में आपका स्वागत है |
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Tuesday, 17 December 2013

तुम हो दामिनी !



धुंध है या
घनीभूत हो उठी है पीर
या शर्मिंदा हो कर
उन्मन-से सूरज ने
ओढ़ लिया है
कोहरे का खोल !

नहीं निकलना चाहता सूरज
काँप-काँप जाती है रूह
नहीं उठते उसके कदम
याद कर
एक निर्बल-सी देह
नोचते-फाड़ते
वहशी दरिंदे
आख़िरी पर नुचने तक
छटपटाती
लहूलुहान होती देह
वो आर्त्तनाद
वो चीत्कार
सिहर उठता है सूरज
मिटा देना चाहता है
उगने और छिपने के क्रम में से
१६ दिसंबर की तारीख़ ।

कैसे ढलेगा सूरज
निर्भया की चिता की ओर
कैसे मिला पाएगा आँखें
निर्भया के तेज से
कैसे कह पाएगा
दामिनी की राख़ से
कि तुम्हारी लड़ाई
तुम्हारी क़ुर्बानी
तुम्हारे नाम जैसी ही थी
जो बिजली-सी कौंधी
और फिर........
फिर सब पूर्ववत !

कुछ भी तो नहीं बदला दामिनी
आज भी अख़बारों में चीखती हैं
मासूम बच्चियाँ
आज भी नहीं हैं सुरक्षित
दिल्ली की सड़कें
तुम्हारी बहनें ।

सुनो दामिनी !
टूटते तारे-सी
दिख ही जाती हो तुम
अस्मिता की लड़ाई में
प्रतिकार में
संघर्ष में
चीखें नहीं मरा करतीं दामिनी
एक चिंगारी बनकर
सुलग रही हो तुम
हर नारी की देह में
तुम हो दामिनी
तुम हो
तुम्हारे इस होने को
नमन
श्रद्धांजलि !


सुशीला श्योराण 

Saturday, 18 May 2013

स्मृति शेष


माँ की याद में जो २ मई २०१३ को हम सब को स्नेहिल यादें दे कर सदा-सदा के लिए विदा कह गईं ...... मगर माँ क्या कभी अपने बच्चों से दूर जा सकती है? हर पल महसूस करती हूँ उन्हें......

स्मृति शेष

स्मृति शेष
तेरे अवशेष
खूँटी पर टँगा
नीली छींट का कुर्ता
जैसे अभी बढ़ेंगे तेरे हाथ
और पहन लेंगे 
पीहर का प्यार
बंधेज का पीला
बंधा है जिसमें अभिमान
तीन बेटों की माँ का
पोते-पड़पोते
करते रहे समृद्ध
तेरे भाग्य को !
करती गई निहाल
बेटियों
बहुओं की ममता ।

शांत, सलिल जल में
मंथर तिरती तेरी जीवन-नैया
घिरी झंझावात में
दौड़े आए तेरे आत्मज
बढ़ाए हाथ
कि खींच लें सुरक्षित जलराशि में ।

कैंसर का भँवर
खींचता रहा तुझे पल-पल
अतल गहराई की ओर
असहाय, व्यथित
तेरे अंशी
देखते रहे विवश
काल के गह्वर में जाती
छीजती जननी
क्षीण से क्षीणतर होती
तेरी काया
तेरी हर कराह में
बन तेरा साया
ताकते रहे बेबस
कि बाँट लें तेरा दर्द
चुकाएँ दूध का क़र्ज़
निभा दें अपना फ़र्ज़
पर ये भयावह मर्ज़ !

आया जो बन काल
बेकार हुईं सब ढाल
तीन माह का संघर्ष
हारी ज़ि्न्दगी
जीती बीमारी ।

न होने पर भी
हर खूँटी, हर आले में
मौजूद है माँ
बिलगनी पर
परिंडे में
चूल्हे की आँच में
रोटी की खुशबू में
मक्खन के स्वाद में
दूध के पळिये में
दही की हांडी में
मिर्च और टींट में
हर स्वाद में
बसी है तू !

क्या है कोई अंतर
तेरे होने न होने में ?

बस इतना ही तो
कि तेरा स्पर्श
अहसास बनकर
अब भी लिपटा है
तन-मन से
और तू न हो कर भी
हर जगह है
घर की हर ईंट में
तुलसी, झड़बेर में
खेजड़ी, खेत में
आँगन की रेत में
घड़े के सीळे पानी में
चूल्हे की राख में
बड़ की छाँव में

हाँ तू है
हर जगह
और मुझमें ।

-
शील

Saturday, 27 April 2013

अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो




रह-रह कानों में
पिघले शीशे-से गिरते हैं शब्द
"
अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो"।

ज़हन में 
देती हैं दस्तक
घुटी-घुटी आहें, कराहें
बिटिया होना
दिल दहलाने लगा है
कितने ही अनजाने खौफ़
मन पालने लगा है
मर्दाने चेहरे 
दहशत होने लगे हैं
उजाले भी 
अंधेरों-से डसने लगे हैं !

बेबस से पिता
घबराई-सी माँ
कब हो जाए हादसा
न जाने कहाँ !

कुम्हला रही हैं
खिलने से पहले
झर रही हैं
महकने से पहले
रौंद रहे हैं
मानवी दरिंदे
काँपती हैं 
ज्यों परिंदे
अहसासात
मर गए हैं
बेटियों के सगे
डर गए हैं।

-
शील

चित्र - साभार गूगल

Sunday, 14 April 2013

प्रेम



प्रेम

अनजानी राहों से
दरिया, पर्वतों को लांघ
चला ही आया
तुम्हारा प्रेम।

चुपके-से अँधेरे को चीर
नींद से कर वफ़ा के वादे
आ बैठा सिरहाने
सहलाता रहा केश
चूम ही लिया
मुँदी पलकों को
बिखरी अलकों में
उलझ गए तुम्हारे नैना।

होठों की जुंबिश
बुलाती रही तुम्हें
और तुम
निहारते ही रहे
मेरे चेहरे के दर्पण में
अपनी ही छवि !

- शील

Saturday, 23 February 2013

ए मौत के सौदागर



वहाँ..........
वो लाश जो खून से लथपथ पड़ी है
बम के छर्रों ने नहीं छोड़ा पहचान के काबिल
उड़ा दिए हैं शरीर के पर्खच्‍चे
बाँया हाथ कहीं दूर जा गिरा है
शेष झुलसे, खून से सने अवयव   
देते हैं तुम्हें चुनौती
पहचान सको तो पहचानो
कौन था मैं
हिन्दू, मुसलमान या क्रिस्तान
नहीं पहचान सके ना?

कैसे पहचानते?
धर्म की सतह पर तैरते शैवाल जो हो
बन चुके हो अमरबेल
एक श्राप
अपने आश्रय का काल
इंसानियत, धर्म पर कलंक
क्योंकि     
धर्म तो जीने की राह सिखाता है
जीवन नहीं छीनता
मौत नहीं बाँटता !

मैं एक गरीब पिता था 
दो जून की रोटी को जूझता
दिलसुख नगर की सब्ज़ीमंडी में
बेच रहा था फल
कल की रोटी के लिए
तुम्हारे बच्‍चों के स्वास्थ्य के लिए
तुम्हारी धर्मांध दरिंदगी ने
छीन ली एक बूढ़ी माँ से उसकी लाठी
एक गरीब बीवी से उसका पति
मासूम बच्‍चों से उसका पिता
उजड़ गई गृहस्थी
उजड़ गए सपने।

चंद लाशें बिछाकर
दहशत के कारोबार से
क्या हुआ हासिल
बोल मौत के सौदागर
ए काफ़िर !

सुन कायर
कभी ला अपनी माँ को
दिखा अपनी करतूत
जलती लाशें, तड़पते ज़िस्म
फिर देख
कैसे रोएगी उसकी ममता
होगी उसकी कोख शर्मसार
नहीं कर पाएगी तुझसे प्यार
नहीं माँग सकेगी तेरी लंबी उम्र की दुआ

दिखा अपनी बहन को
ये सिहरा देने वाली जलती लाशें
तेरे अट्‍टहास उसकी आँखों से आँसू बन झरेंगे
तेरी हँसी से नफ़रत हो जाएगी उसे
तुझे भाई कहते रो देगा उसका दिल!

सुन ए दहशतगर्द !
क्या दिया तूने
अम्मी की आँखों में आँसू
अब्बू को शर्मिंदगी
इंसानियत को कराह
छोड़ यह राह
यह सवाब नहीं
दोजख की ओर जाती है
बन सकता है तो बन
अम्मी, अब्बू का गुमान
बीवी के चेहरे का नूर
हर चेहरे की खुशी
इसी में तेरी मुक्‍ति।

-सुशीला शिवराण
शील’

Tuesday, 25 December 2012

बदलनी होगी अब तस्वीर



युवा शक्‍ति को नमन! दामिनी/निर्भया को सलाम और उस बच्ची की सलामती की दुआ के साथ आज की प्रस्तुति -

कुहासा है या
घनीभूत हो गई है पीर
या शर्मसार हो रवि
छिप गया है घन के चीर

कौंध उठी है दामिनी
चुक गया है सबका धीर
बेटियों पर बरसाएँ डंडे
कैसे भैया पुलिसिया वीर?

जनता हुँकार उठी है
नहीं देश किसी की जागीर
बहुत सहा है हमने लेकिन
बदलनी होगी अब तस्वीर

-
शील

चित्र - साभार गूगल

Friday, 21 December 2012

हर शब्द हुंकार है






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 हर शब्द हुंकार है
हर शब्द ललकार
शक्‍ति का निनाद है
बदलाव का शंखनाद

बहुत सहे आघात
करना होगा प्रतिघात
कुंकुम, महावर नहीं
शस्त्र ही तेरा शृंगार

दामिनी की तरह
हर स्‍त्री को लड़ना है
नहीं मुँह ढाँप
अनाचार सहना है

केवल नारे, विरोध नहीं
अब लड़ कर दिखाना है
काल हूँ तेरी
हर वहशी को बताना है

-
शील

चित्र : साभार गूगल
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Thursday, 20 December 2012

इनकार है


बहुत कुछ घुट रहा है अंतस में पिछले दो दिनों से -


सदियों से रिसी है
अंतस में ये पीड़
स्‍त्री संपत्ति
पुरूष पति
हारा जुए में
हरा सभा में चीर
कभी अग्निपरीक्षा
कभी वनवास
कभी कर दिया सती
कभी घोटी भ्रूण में साँस


क्यों स्वीकारा
संपत्‍ति, जिन्स होना
उपभोग तो वांछित था
कह दे
लानत है
इस घृणित सोच पर
इनकार है
मुझे संपत्‍ति होना


तलाश अपना आसमां
खोज अपना अस्तित्‍व
अब पद्‍मिनी नहीं
लक्ष्मी बनना होगा
जौहर में स्वदाह नहीं
खड्‍ग ले जीना होगा

-
शील

Wednesday, 19 December 2012

हे सृजनहार




आज विधाता से एक सवाल पूछने का बड़ा मन कर रहा है -

हे सृजनहार
पूछती हूँ
आज एक सवाल
क्यों लिख दी तूने
जन्म के साथ
मेरी हार ?


सौंदर्य के नाम पर
अता की दुर्बलता
सौंदर्य का पुजारी
कैसी बर्बरता !
इंसां के नाम पर
बनाए दरिंदे
पुरूष बधिक
हम परिंदे
नोचे-खसोटें
तन, रूह भी लूटें
देख
कैसे, कितना हम टूटे !

(
लिखी जा रही कविता से...)
-शील

Sunday, 2 December 2012

तुम आए



तुम आए 
मरू में तपती रेत पर
बारिश बनकर
जी उठी हूँ
सौंधी-सौंधी
महक मन भर।

तुम्हारे प्रेम की फुहार में
भीग गया है मेरा तन-मन 
लहराता आंचल 
दौड़ रहा है मुझमें
तुम्हारा प्रेम परिमल !

बीज दिए हैं तुमने
कितने ही सपने, आशाएँ
कामनाएँ जग उठी हैं 
खुली आँखों में !
हो गई हूँ एक नदी
तुम्हारे प्रेम में तरंगित
तुम्हारे ही आवेग में 
उन्मादिनी-सी बह रही हूँ - 
समा जाना चाहती हूँ
जिसकी अतल गहराइयों में मौन, 
खुद को खोकर
चाहती हूँ होना एकाकार 
और अभिन्नक तुम्हारे
प्रेम में सरसिज !

देखो ! चाँद भी मुस्कुरा रहा है
सोलह कलाओं को समेटे साथ
हमारे प्रेम का साक्षी
मानो दे रहा है सौगात
बरसा कर शुभ्र चाँदनी !

- शील

चित्र : साभार गूगल

Monday, 22 October 2012

प्राप्‍य




प्राप्‍य

तपते मरू-सा मेरा जीवन
धूप-घाम सहता
जूझता आँधियों से
उस जूझने के बीच
कुछ रेत के कण
धँस जाते आँखों में
दे जाते घनेरी पीर !

पारिजात की चाह में
कई बार उलझा कैक्टस में
खुशबू तो ना मिली
फटा आँचल
लहूलुहान गात
रिसता लहू
ज़ख्म सौगात !

किंतु मन !
मन पा ही लेता है अपना प्राप्य
कुछ शीतल स्नेहिल छींटे
हँस उठती हैं आँखें
हरिया उठता है मन !


-शील

Wednesday, 26 September 2012

इश्‍क



इश्‍क
हिना है
पिसती है
सजती है
महकती है
चढ़े बला का शोख रंग
खिल उठे अंग-अंग
गुज़रते वक्‍त के साथ
हो जाए 
रंग फ़ीका 
रह जाएँ सूनी हथेली
और कुछ भद्‍दे से चकत्‍ते 
एक सूना तड़पता दिल
टीसता रहे ज़ख्‍मों से
खूबसूरत चेहरों ने जो
भद्‍दी यादों के दिए....

- सुशीला श्योराण

चित्र : साभार गूगल