आज विधाता से एक सवाल पूछने का बड़ा मन कर रहा है -
हे सृजनहार
पूछती हूँ
आज एक सवाल
क्यों लिख दी तूने
जन्म के साथ
मेरी हार ?
सौंदर्य के नाम पर
अता की दुर्बलता
सौंदर्य का पुजारी
कैसी बर्बरता !
इंसां के नाम पर
बनाए दरिंदे
पुरूष बधिक
हम परिंदे
नोचे-खसोटें
तन, रूह भी लूटें
आ देख
कैसे, कितना हम टूटे !
(लिखी जा रही कविता से...)
-शील
स्त्रियो की दुर्दशा उसकी पीड़ा का सटीक चित्रण..
ReplyDeleteबस दर्द ही दर्द है ...आज मन में...
ReplyDeleteबेहतरीन,दर्द भरी सुंदर रचना,,,,
ReplyDeleterecent post: वजूद,
टूट तो जाते ही हैं हम....धीरे धीरे बिखर न जाएँ...
ReplyDeleteसादर
अनु
बहुत मार्मिक...
ReplyDeleteबहुत दर्द संजोया है...मार्मिक..
ReplyDeleteसंवेदनाओं को संजोये मार्मिक प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहद मार्मिक व संवेदनशील प्रस्तुति
ReplyDeleteदर्द की चीख
ReplyDeleteनिकलती है जब
घुटती साँसे
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