साँसों की डोर
उखड़ रही थी.......उसने चूल्हे की ओर देखा........जिसकी आँच में उंगलियाँ जला कितनी
तृप्त होती रही वो......परिंडा, घड़े ....सींचती रही जिस अमृत से.... अपनों को, खुद
को उस तपते रेगिस्तान में......नज़रें घूमती रहीं.......हर उस चीज़ पर जो उसकी ज़िन्दगी
का बरसों से हिस्सा बनी रही......मानो मुंदने से पहले इन्हें आँखों में कैद कर अपने
साथ ले जाना चाहती हो......घूमती हुई नज़र उन चेहरों पर टिक गई...... जिनमें वो खुद
को देखती आई थी.....एक संतोष का भाव उसके चेहरे पर तैर गया.....अब पास ही खड़े अपने
जीवन साथी का हाथ पकड़ा........अजीब सी वेदना तैर गई आँखों में......मझोले बेटे ने संबल
देने के लिए उसका हाथ थामा......उसने बेटे-बेटी को देखा और उनके चेहरे आँखों में लिए
सदा के लिए विदा कह गई.......
तू विदा लेकर भी कहाँ जुदा हो पाई माँ !
तू विदा लेकर भी कहाँ जुदा हो पाई माँ !
- शील