साँसों की डोर
उखड़ रही थी.......उसने चूल्हे की ओर देखा........जिसकी आँच में उंगलियाँ जला कितनी
तृप्त होती रही वो......परिंडा, घड़े ....सींचती रही जिस अमृत से.... अपनों को, खुद
को उस तपते रेगिस्तान में......नज़रें घूमती रहीं.......हर उस चीज़ पर जो उसकी ज़िन्दगी
का बरसों से हिस्सा बनी रही......मानो मुंदने से पहले इन्हें आँखों में कैद कर अपने
साथ ले जाना चाहती हो......घूमती हुई नज़र उन चेहरों पर टिक गई...... जिनमें वो खुद
को देखती आई थी.....एक संतोष का भाव उसके चेहरे पर तैर गया.....अब पास ही खड़े अपने
जीवन साथी का हाथ पकड़ा........अजीब सी वेदना तैर गई आँखों में......मझोले बेटे ने संबल
देने के लिए उसका हाथ थामा......उसने बेटे-बेटी को देखा और उनके चेहरे आँखों में लिए
सदा के लिए विदा कह गई.......
तू विदा लेकर भी कहाँ जुदा हो पाई माँ !
तू विदा लेकर भी कहाँ जुदा हो पाई माँ !
- शील
सुशीला जी बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति ..... माँ जाने के बाद भी आसपास ही महसूस होती है शायद ये उसका प्यार ही है
ReplyDeleteआज एक महीना हो गया माँ को गए लेकिन वो आज भी कहीं आस-पास ही है।
Deleteशुक्रिया दोस्त
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (02-06-2013) के चर्चा मंच 1263 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteधन्यवाद अरूण जी माँ की स्मृति को साझा करने के लिए।
Deleteबहुत मर्मस्पर्शी ....
ReplyDeleteशुक्रिया संगीता जी । यूँ ही स्नेह बनाए रखें।
Deleteमां की बात होती है तो मैं भावुक हो जाता हूं। मेरा मानना है कि आज दुनिया में वही आदमी सबसे ज्यादा धनवान है, जिसकी मां का साया उसके साथ है। आज जिसकी मां का साया आदमी के साथ नहीं है, वो दुनिया का सबसे गरीब इंसान हैं।
ReplyDeleteए अंधेरे देख ले, मुंह तेरा काला हो गया
मां ने आंखे खोल दी घर में उजाला हो गया।
नोट : आमतौर पर मैं अपने लेख पढ़ने के लिए आग्रह नहीं करता हूं, लेकिन आज इसलिए कर रहा हूं, ये बात आपको जाननी चाहिए। मेरे दूसरे ब्लाग TV स्टेशन पर देखिए । धोनी पर क्यों खामोश है मीडिया !
लिंक: http://tvstationlive.blogspot.in/2013/06/blog-post.html?showComment=1370150129478#c4868065043474768765
विस्तृत टिप्पणी के लिए आभार महेन्द्र जी। आपके ब्लॉग को अवश्य पढ़ूँगी।
Deleteमाँ की याद जहाँ से ऐसे ही भुलाई जा सकती है क्या?
ReplyDeleteभावुक करती प्रस्तुति.
संवेदना साझा करने के लिए आभार रचना जी।
Deleteमां की जीवन-स्मृतियों और उस आत्मीय रिश्ते को बहुत संवेदनशीलता के साथ सहेजती है यह कविता। बधाई और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteमाँ की स्मृति को "चर्चा, मयंक का कोना" में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार डॉ रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी। सभी लिंक बहुत उपयोगी और सुरूचिपूर्ण लेखन का उदाहरण हैं।
ReplyDeleteमाँ को भुला पाना सहज नहीं होता मन की, व्यथा कथा को मार्मिकता से उकेरा है
ReplyDeleteवाह बहुत खूब
सादर
आग्रह है
गुलमोहर------
बहुत मार्मिक
ReplyDeleteमाँ कभी जुदा नहीं होती अपने बच्चों से
सादर !
बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
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