तुम्हारे प्रेम ने
पुरवा बन
जब-जब छुआ मुझे
झंकृत हुए मन के तार
झूम उठा अंग-प्रत्यंग
गा उठा मन
गीत प्रीत के ।
तुम्हारे प्रेम ने
पावस बन
जब-जब भिगोया मुझे
जी उठी मैं
ज्यों तपती रेत
हो जाती है तृप्त
झमाझम बारिश में
आनंद से विभोर
हुलस उठा मन
नाचा बन मोर।
तुम्हारा प्रेम
मानता है सब नियम
नहीं रहता स्थायी
बदलता है प्रकृति-सा
हो जाता है पतझर
झर जाते हैं अहसास
जड़ हो जाते
मन-आत्मा
नहीं पोसता
तुम्हारा प्रेम
हो जाती हूँ ठूँठ
सहती मौसम की मार
निर्विकार
दग्ध करते अंतस
आँधियाँ, लू के थपेड़े
खड़ी हूँ उन्मन
चिर-प्रतीक्षा में
कब आओगे
मेरे पावस?
- शील
चित्र - साभार गूगल
बहुत सुन्दर सुशिलाजी
ReplyDeleteशुक्रिया सरस जी।
Deletenice image has enhance your post's beauty .nice post with nice feelings .
ReplyDeleteहम हिंदी चिट्ठाकार हैं
धन्यवाद शिखा जी।
Deleteबहुत सुन्दर कविता मर्म छू लेने वाली .Manjul Bhatnagar
ReplyDeleteकविता पसंद करने के लिए आभार मंजुल जी।
Deleteसुंदर कविता, बहुत बढिया।
ReplyDeleteमन को छू गई ...
मीडिया के भीतर की बुराई जाननी है, फिर तो जरूर पढिए ये लेख ।
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बहुत-बहुत धन्यवाद महेन्द्र श्रीवास्तव जी।
Deleteप्रेम से ओत प्रोत लाजवाब पंक्तियाँ, प्रेम रस में डूबी हुई प्रत्येक पंक्ति अत्यंत सुन्दर एवं मनोहारी हैं सुशीला जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteआपकी इस सुंदर प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभार अरून जी।
Deleteaapki yeh rachnaen man ko chhu gaeen,badhai.
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुमूल्य है अशोक जी। आभार
ReplyDeleteबिरह के बाद प्रेम की ज्वाला और तेज हो जाती है. सुंदर भावपूर्ण कविता. बधाई सुशीला जी.
ReplyDeleteअलग मौसमों के परिधानों मे सजा ये अलौकिक एह्सास इससे अलग और कुछ हो ही नहीं सकता ... एहसासों को शब्दों मे य्यक्त करने की अनोखी प्रतिभा ईध्व्र ने आपको दी है ... अच्छा और सुखद था इसे पढ़ना ...
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