प्राप्य
तपते मरू-सा मेरा जीवन
धूप-घाम सहता
जूझता आँधियों से
उस जूझने के बीच
कुछ रेत के कण
धँस जाते आँखों में
दे जाते घनेरी पीर !
पारिजात की चाह में
कई बार उलझा कैक्टस में
खुशबू तो ना मिली
फटा आँचल
लहूलुहान गात
रिसता लहू
ज़ख्म सौगात !
किंतु मन !
मन पा ही लेता है अपना प्राप्य
कुछ शीतल स्नेहिल छींटे
हँस उठती हैं आँखें
हरिया उठता है मन !
तपते मरू-सा मेरा जीवन
धूप-घाम सहता
जूझता आँधियों से
उस जूझने के बीच
कुछ रेत के कण
धँस जाते आँखों में
दे जाते घनेरी पीर !
पारिजात की चाह में
कई बार उलझा कैक्टस में
खुशबू तो ना मिली
फटा आँचल
लहूलुहान गात
रिसता लहू
ज़ख्म सौगात !
किंतु मन !
मन पा ही लेता है अपना प्राप्य
कुछ शीतल स्नेहिल छींटे
हँस उठती हैं आँखें
हरिया उठता है मन !
-शील
मरु में भी शीतलता मिल ही जाती है , बस अन्तस् में मरुता हावी न हो !
ReplyDeleteभाव पूर्ण रचना !
धन्यवाद धीरेन्द्र अस्थाना जी
Deleteपारिजात की चाह में
ReplyDeleteकई बार उलझा कैक्टस में
खुशबू तो ना मिली
फटा आँचल
लहूलुहान गात
रिसता लहू
ज़ख्म सौगात !...बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ .... जीवन कि सच्चाई से परिचित कराया है आपने सुशीला जी .
किंतु मन !
ReplyDeleteमन पा ही लेता है अपना प्राप्य
कुछ शीतल स्नेहिल छींटे
हँस उठती हैं आँखें
हरिया उठता है मन !
...बस जीवन में इससे ज्यादा की चाह भी नहीं होती .....बहुत सुन्दर शीलजी
किंतु मन !
ReplyDeleteमन पा ही लेता है अपना प्राप्य
कुछ शीतल स्नेहिल छींटे
हँस उठती हैं आँखें
हरिया उठता है मन !.... मन की यही विधा तो जिजीविषा का वरदान है
यही भाव जीवन की सरसता को बचाये रखता है !
ReplyDeleteजीवन में सरसता बनाए रखने के लिए बस इन्हीं भाविं की आवश्यकता होती है...बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteतपती दुपहर में भी मन स्वयं को किसी शीतल भाव में भिगो लेता है. बहुत ही सुंदर कविता.
ReplyDeleteकिंतु मन !
ReplyDeleteमन पा ही लेता है अपना प्राप्य
कुछ शीतल स्नेहिल छींटे
हँस उठती हैं आँखें
हरिया उठता है मन !
bilkul sahi bat man jaldi haar nahi maanta ...bahut acchi abhiwyakti ...
बेहद सुन्दर व भावपूर्ण रचना, आपको यहाँ http://mostfamous-bloggers.blogspot.in/ शामिल किया गया है पधारें
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