वहाँ..........
वो लाश जो खून से लथपथ पड़ी है
बम के छर्रों ने नहीं छोड़ा पहचान के काबिल
उड़ा दिए हैं शरीर के पर्खच्चे
बाँया हाथ कहीं दूर जा गिरा है
शेष झुलसे, खून से सने अवयव
देते हैं तुम्हें चुनौती
पहचान सको तो पहचानो
कौन था मैं
हिन्दू, मुसलमान या क्रिस्तान
नहीं पहचान सके ना?
कैसे पहचानते?
धर्म की सतह पर तैरते शैवाल जो हो
बन चुके हो अमरबेल
एक श्राप
अपने आश्रय का काल
इंसानियत, धर्म पर कलंक
क्योंकि
धर्म तो जीने की राह सिखाता है
जीवन नहीं छीनता
मौत नहीं बाँटता !
मैं एक गरीब पिता था
दो जून की रोटी को जूझता
दिलसुख नगर की सब्ज़ीमंडी में
बेच रहा था फल
कल की रोटी के लिए
तुम्हारे बच्चों के स्वास्थ्य के लिए
तुम्हारी धर्मांध दरिंदगी ने
छीन ली एक बूढ़ी माँ से उसकी लाठी
एक गरीब बीवी से उसका पति
मासूम बच्चों से उसका पिता
उजड़ गई गृहस्थी
उजड़ गए सपने।
चंद लाशें बिछाकर
दहशत के कारोबार से
क्या हुआ हासिल
बोल मौत के सौदागर
ए काफ़िर !
सुन कायर
कभी ला अपनी माँ को
दिखा अपनी करतूत
जलती लाशें, तड़पते ज़िस्म
फिर देख
कैसे रोएगी उसकी ममता
होगी उसकी कोख शर्मसार
नहीं कर पाएगी तुझसे प्यार
नहीं माँग सकेगी तेरी लंबी उम्र की दुआ
दिखा अपनी बहन को
ये सिहरा देने वाली जलती लाशें
तेरे अट्टहास उसकी आँखों से आँसू बन झरेंगे
तेरी हँसी से नफ़रत हो जाएगी उसे
तुझे भाई कहते रो देगा उसका दिल!
सुन ए दहशतगर्द !
क्या दिया तूने
अम्मी की आँखों में आँसू
अब्बू को शर्मिंदगी
इंसानियत को कराह
छोड़ यह राह
यह सवाब नहीं
दोजख की ओर जाती है
बन सकता है तो बन
अम्मी, अब्बू का गुमान
बीवी के चेहरे का नूर
हर चेहरे की खुशी
इसी में तेरी मुक्ति।
-सुशीला शिवराण ‘शील’









