वीथी

हमारी भावनाएँ शब्दों में ढल कविता का रूप ले लेती हैं।अपनी कविताओं के माध्यम से मैंने अपनी भावनाओं, अपने अहसासों और अपनी विचार-धारा को अभिव्यक्ति दी है| वीथी में आपका स्वागत है |

Sunday 12 February 2012

वह स्वतंत्रा


मुझे जीने दो...............

मेट्रो शहर 
अंग्रेज़ी मीडियम 
श्वेत वर्णा मोहिनी
पिता का  ऊँचा रूतबा  
गर्दन हमेशा तनी रहती 
वह गर्विता 
वह स्वतंत्रा ! 


संवेदनादया 
क्या होती हया 
कहाँ जाना ?
किया वही
जो मन माना
कुछ ज़िद्दी
कुछ उच्छृंखल
वह स्वतंत्रा !


उँची स्कर्ट
टाईट जिन्स
छोटे टॉप
Mom की चिंता
Dad की भृकुटि
मात-पिता
पुरातन पंथी
व्यर्थ विचार
जनरेशन गैप 
वह स्वतंत्रा ! 


रूतबे नेरूतबे से जोड़ा
अधिकारी से गठजोड़ा
पात्रता
रूप और रूतबा
जो था भरपूर
गुमान कम नहीं
कहती थी "मैं हूर"
वह स्वतंत्रा !  

बड़ा नाज़ था खुद पे उसे
जो चाहा वो पाया 
बेटी जन्मी
थोड़ा कुंठित
पहली बार
नहीं मिला अभिष्ट
रह गई कसक
वह स्वतंत्रा ! 


दूसरी बार प्रबल आस
करवाया परीक्षण
टूटे सपने 
कैसे मानती हार !
कोख में ही नरसंहार
तीसरी फिर
चौथी बार
वही घटनाक्रम
विधि को  दिखा अंगूठा
दुस्साहस घोर
गर्भ में घोटी साँस
बेटी की नहीं आस 
वह स्वतंत्रा ! 


प्रकृति भी हुई व्यथित
उसकी ममता पड़ी उमड़ 
मानी हार दिया उपहार
फिर परीक्षण चमकी आँखें
खिल गईं बाँछें
जैसे पाई उपलब्धि हो
विरली डिग्री लब्धि हो
वह स्वतंत्रा !


तोड़े बंधन
समाज के
संस्कार के
परिधान के
विधान के
आचार के 
विचार के
फिर क्यों
बेटे-बेटी में अंतर
क्यों भ्रूण-हत्या
मैं निरूत्तर
वह स्वतंत्रा !


यही है समाज
वो इसका प्रतीक
ढोंग का आवरण
ओढ़ लिया है
मुखौटा सटीक
चढ़ा लिया है
मॉडर्न परत
हटा के देखो
वही मिलेंगे
रिवाज़विचार
पब्लिक में
न कर पाते 
स्वीकार !

नकलीपन लिए
जी रहे हैं
खुद से खुद को 
छुपा रहे हैं
पाया अक्षर-ज्ञान
शिक्षा नहीं
संस्कारों की
दीक्षा नहीं
बुद्धि है 
विवेक नहीं
मन है
संयम नहीं
कर्म क्षुद्र 
नेक नहीं !
वह स्वतंत्रा !

-सुशीला श्योराण

चित्र : आभार - गूगल

40 comments:

  1. समय के साथ संवाद करती हुई आपकी यह प्रस्तुति बहुत ही अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट "भीष्म साहनी" पर आपका बेशब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया प्रेम सरोवर जी।

      Delete
  2. सोचने पर विवश करती....
    सार्थक रचना..

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकॊ छुआ इस कविता ने धन्यवाद विद्या जी।

      Delete
    2. धन्यवाद विद्या जी।

      Delete
  3. आधुनिक परिधान से हो गए हैं पर अभी भी पुरातनपंथी विचारों से जकड़े हुये हैं ... सार्थक लेखन ।

    ReplyDelete
  4. सोचने पर विवश करती....
    सार्थक रचना |

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार संगीता जी इस सार्थकता को बल देने के लिए।

      Delete
  5. बड़ा नाज़ था
    खुद पे उसे
    जो चाहा
    वो पाया
    बेटी जन्मी
    थोड़ा कुंठित
    पहली बार
    नहीं मिला
    अभिष्ट
    रह गई कसक
    वह स्वतंत्रा !
    ........behtareen rachna

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार रश्मि जी।

      Delete
  6. बेहतरीन गीत...बधाई स्वीकारें

    नीरज

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया नीरज जी।

      Delete
  7. विधि को
    दिखा अंगूठा
    दुस्साहस घोर
    गर्भ में घोटी साँस
    बेटी की नहीं आस
    वह स्वतंत्रा !
    wah Sushila ji bahut khoob likha hai apne ......swantantrta pr teekha vyang ...badhai sweekaren.

    ReplyDelete
    Replies
    1. बधाई स्वीकार और हार्दिक आभार नवीन जी।

      Delete
  8. बहुत बहुत सुंदर रचना बहुत गहरे से दिल को छू के गयी है

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका वीथी पर स्वागत है मासूम शायर जी। तहे दिल से शुक्रिया।

      Delete
  9. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 16-02-2012 को यहाँ भी है

    ...नयी पुरानी हलचल में आज...हम भी गुजरे जमाने हुये .

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार संगीता जी। बहुत सुंदर हलचल लेकर आई हैं आप बेहतरीन links के साथ।
      मेरी "वह स्वतंत्रा" शामिल करने के लिए आभार।

      Delete
  10. इस पर मेरी टिप्पणी नहीं दिख रही ॥स्पैम में देखिएगा

    ReplyDelete
  11. शिक्षा नहीं
    संस्कारों की
    दीक्षा नहीं
    बुद्धि है
    विवेक नहीं.bahut gahan abhivaykti.

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार निशा जी। आपने इस कविता के मर्म को पकड़ा।

      Delete
  12. कुछ प्रश्न खड़े करती यह कविता गंभीरता से बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है।


    सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. और समाज को एक नई दिशा भी कि आधुनिक विचारोम से बनो,वस्त्रों से नहीं और विधाता का दिया जीवन हरने का हमें कोई अधिकार नहीं।
      शुक्रिया @यशवन्त माथुर (Yashwant Mathur)ji

      Delete
  13. Replies
    1. @mridula pradhan जी शुक्रिया

      Delete
  14. विचारणीय ,सार्थक पोस्ट..बहुत सुन्दर...

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार @http://www.blogger.com/profile/07497968987033633340

      Delete
  15. बेहतरीन सार्थक सुंदर रचना, बहुत अच्छी प्रस्तुति,....

    MY NEW POST ...कामयाबी...

    ReplyDelete
    Replies
    1. @dheerendra जी हार्दिक आभार

      Delete
  16. अलग ही अंदाज में आपने ज्वलंत प्रश्न को उठाया है....
    बहुत ही सार्थक रचना...
    सादर बधाई...

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत शुक्रिया @S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib')

      Delete
  17. सोचने को विवश करती इंसान के दोहरे चरित्र को दर्शाती एक अति उत्तम रचना।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी सराहना मिली रचना सार्थक हुई। आभार@वन्दना जी

      Delete
  18. बहुत ही सार्थक कविता लिखी है ..

    दोहरेपन पर आघात करती हुई कविता .. आभार

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी सही कहा आपने । आईना दिखाने का प्रयास किया है । शायद कोई अपनी सूरत पहचान ले!
      @पुष्पेन्द्र वीर साहिल - आपका हार्दिक आभार

      Delete
  19. टिप्पणियाँ जो प्रेरणास्त्रोत हैं। जिनको पढ़ना आनंद और तुष्टि का संचार करता है-

    https://www.facebook.com/notes/sushila-shivran/%E0%A4%B5%E0%A4%B9-%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE/251982748210368?notif_t=note_comment

    ReplyDelete
  20. Replies
    1. आपकी टिप्प्णी रचना की सफ़लता की कहानी बयां करती है। हार्दिक आभार @Mukesh Kumar Sinha जी।
      अपने Blog का link दीजिये।

      Delete
  21. आपका तहे दिल से शुक्रिया @सदा जी

    ReplyDelete
  22. बेहद सुन्दर भावपूर्ण रचना है....

    ReplyDelete